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कर्ता-की-अधिकार इत्युद्दामविवेकयस्मरमहो मारेण मिनस्तमो
ज्ञानीभूय तदा स एष लसितः कर्तृत्वशून्यः पुमान् ॥४॥
मूर्य की भांति तेजवान भेदनान के द्वारा, जोव मिथ्यात्वरूप अंधकार का छंदन करता है और अनादि के मिथ्यात्वरूप कर्म के एक पर्यायरूप परिणाम से छूट कर शुद्ध चेतन का अनुभव करता है। ऐसा जीव जो अनादिकाल में मिथ्यात्वरूप परिणमन कर रहा था वह कर्म के कर्तृत्व से रहित होता है।
एक ही द्रव्यरूप वस्तु या सत्तारूप वस्तु में जितने भी गुणरूप या पर्याय रूप भंद है उनक विकल्प से भेद ज्ञान हाता है।
भावार्थ-- जमे, सोना पोला, भारी. चिकना कहने के लिए है परन्तु (उमकी) एक मता है। मे ही जोव द्रव्य जाता-दष्टा कहने के लिए है परन्तु है एक मनाम्प । इम प्रकार एक सनारूप द्रव्य में भेद बुद्धि करने से व्याप्य-व्यापकना घटित होती है। परिणामी द्रव्य अपने परिणाम का करने वाला है । द्रव्य ने (अमक) परिणाम किया ऐमा भे दकरने में ही व्याप्यव्यापकपना बनता है, अन्यथा नहीं। जीव की मना मे पुद्गल द्रव्य की सत्ता भिन्न है। इनमें निश्चय ही व्याप्य-व्यापकपना नहीं हो सकता।
भावार्थ---उपचार मे द्रव्य अपने परिणाम का कर्ता है और वह परिणाम तो द्रव्य का किया हआ है। परन्तु अन्य द्रव्य का कर्ता कोई अन्य द्रव्य तो उपचार में भी नहीं है। इसलिए कि उनकी एक मता नहीं, भिन्न सत्ता है। परिणाम-परिणामी भंद की उत्पनि के बिना ज्ञानावरणादि पुद्गल कम का कता जीव द्रव्य है, मा अनुभव नहीं घटता। इस तरह जीवद्रव्य और पुद्गल की एक मत्ता नहीं है। उनकी भिन्न मना है। इस तरह ज्ञान-सूर्य के द्वारा जिस जीव का मिथ्यात्वरूपी अधकार मिटता है, वह सम्यग्दृष्टि होता है ॥४॥ सर्वया-जसो जो दरव ताके से गुरण परजाय,
ताहीसों मिलत मिल न काहू प्रान मों। जीव वस्तु चेतन करम जर जाति भेद, अमिल मिलाप ज्यों नितम्ब बुरे कान मों॥
ऐसो मुविवेक जाके हिरवं प्रकट भयो, ताको प्रम गयो ज्यों तिमिर भागे भानसों।