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ममयमार
प्राप्लाव्य विभ्रमतिरस्करिणी भरेरण प्रोन्मग्न एष भगवानवबोधसिन्धुः ॥३२॥
इस प्रकार भगवान अर्थात् जीवद्रव्य, जिसका मदाकाल प्रत्यक्ष चेतन म्वरूप है और जो जान मात्र का पात्र है, जिसने विपरीत अनुभव मिथ्यारूप परिणाम को जड़ से उखाड़ कर दूर किया, शुद्ध म्वरूप का आच्छादन करने वाले परदे को ममूल नष्ट करके, शुद्धांग म्वरूप दिखा कर प्रकट हुआ।
भावार्थ - इस ग्रन्थ का नाम है नाटक । रंगमंच पर भी प्रथम ही मदांग नाचना है तथा यहां भी प्रथम ही जीव का शद्ध स्वरूप प्रकट हआ। रंगमंच पर भी पहले कपड़े का पर्दा पड़ा होता है उसको हटा कर शुद्धांग नाचता है। यहां भी अनादिकाल मे मिथ्यात्व परिणति है जिसके छूटने पर गद्ध म्वरूप परिणमता है।
हे समम्त लोक में विद्यमान जीव गशि ! शुद्ध म्वरूप के अनुभवरूप मातरम में, जो मर्वोत्कृष्ट है, उपादेय है, लोकालोक का ज्ञाता है, एक ही वार ही अति ही मग्न हो, तन्मय हो ।
भावार्थ-- रंगमंच पर भी शुद्धांग प्रदर्शन करता है वहां जितने भी देखने वाले हैं एक ही बार में मग्न हाकर देखते हैं तथा जीव का स्वरूप शुद्ध रुप मे दिखाया जाय तो सब ही जीवों को अनुभव करना योग्य है ॥३०॥ सवया. जैसे कोउ पातुर बनाय वस्त्र प्राभरण,
प्रावत प्रखारे निमि प्राडोपट करिके। दुहं मोर दीवटि संवारि पट दूर कीजे, सकल सभा के लोक देखें दृष्टि परिकें।
तैसे मान सागर मिण्यात प्रन्थि मेदिकरि, उमग्यो प्रगट रह्यो तिहुं लोक भरिके। ऐसो उपदेश मुनि चारिए जगत जीव,
शुद्धता संभारे जग जालमों निकरिः॥३२॥ दोहा-जीवतत्व अधिकार यह, प्रगट को समझाय । प्रब अधिकार प्रजोव को, सुनो चतुर मनलाय ।।
॥ इति जीव-अधिकार ॥