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द्वितीय अध्याय
प्रजीव-अधिकार
मालिनी जोराजीवविवेकपुष्कलदृशा प्रत्याययत्पार्षदा. नासमारनिबद्धबन्धनविधिध्वंमाद्विशुद्धं स्फुटत् ॥ प्रात्माराममनन्तधाममहसाध्यक्षेण नित्योदितं । धीरोदात्तननाकुलं विलसति ज्ञानं मनोह्लादयत् ॥१॥
इस प्रकार ज्ञान अर्थात् जीव द्रव्य जमा है वंमा ही प्रकट होता है। शदांग तन्वरूप जीव का निरूपण विधिरूप । अम्तिम्प) है नथा उसी जीव का प्रतिपंध (नास्ति) कप भी कथन होता है। जैम-शद जीव है, टकांकाणं है, चिद्रप है-एसा कथन तो विधि (अस्ति) रूप है और जीव का स्वरूप गुणस्थान नहीं, नोकम नहीं, भावकम नहीं- ऐसा कहना प्रतिबंध (नास्ति रूप कथन है। जो जीव अतःकरणद्रिय का आल्हादित (आनन्दित) करता हआ आठ कर्मो म रहिन स्वम्वरूप मपरिणमा है, स्वसवदन प्रत्यक्ष है, जिसका स्वस्वरूप ही कीड़ावन अर्थात विश्रामस्थल है, जिसका नेजपज अनंत है, जो निरावरण प्रत्यक्ष है, जिस चतन्य शक्ति का प्रताप त्रिकाल शाश्वत है, जो धीर (अडाल) है, सबम वड़ा है तथा जो इन्द्रियनित सुख-दुःख से रहित अतीन्द्रिय मुख में विराजमान है, वह किम प्रकार प्रकट हुआ यह कहते है। अनादिकाल में जीव में मिली आई जो बधनविधि अर्थात् ज्ञानावरणकर्म, दर्शनावरण कर्म, वंदनीय, मोहनीय, आयु, नाम, गोत्र, अन्तराय, इत्यादि जो आठ कम से तथा राग-दंष-मांह परिणाम इत्यादि भावकम से बद्ध विकल्परूप थिति है उसके ध्वंम में अर्थात् नाश में जीव जमा कहा, वैसा प्रकट होता है।
भावार्थ-जिस समय जल और मिट्टी एक माय मिले हए हैं उस समय भी यदि स्वरूप का अनुभव किया जाय तो मिट्टी जल से भिन्न है।