________________
अजीव-अधिकार
अनाद्यनन्तमनलं स्वसंवेरामवाधितम् ।'
जीव: स्वयं तु चैतन्यमुच्चश्चकचकायते ॥६॥
द्रव्य के स्वरूप को विचार तो आत्मा चैतन्य स्वरूप है, स्वयं अपनी सामथ्यं में अति ही प्रकागमान है। और कैसा है चैतन्य जिमका न आदि है और न अन्न अगांत विनाग है. जो अचान है. अपने से ही अपने को जानता है और अमिट है-ोमा नव का स्वरूप है । बोडा--निगवाघ वेतन प्रलव.नने गहन मुकीव ।
प्रचल प्रनादि अनंत निन, प्रगटन में जो ॥६॥
शार्दूलविक्रीडित वचिः महितस्तथा विरहितो देशास्त्यजीवो यतो। नामूर्नत्वमुपास्य पश्यति जगजीवस्य तत्वं ततः ॥ इत्यालोच्य विवेचकः समुचितं नाव्याप्यतिव्यापि वा। व्यक्तं व्यजितजीवतत्त्वमचलं चैतन्यमालम्यतां ॥१०॥ ____जिम पुरुष को भंदज्ञान है वह, जैमा कहा गया है वैसा विचार कर उम चंतन मात्र का अनुभव को जिसका अनुभव करना याग्य है, जो जीव द्रव्य में कभी भित्र नहीं होता, जो जीव में अन्य पांच द्रव्य हैं उनसे भिन्न है, प्रगट है, जिसका स्वरूप प्रगट है, और जो अचल है अर्थात् जिसके प्रदेशकंप मे रहित है । म जीव गांश-जीव का अमूरतीक अर्थात् स्पर्श-रस-गंध-वर्ण गुणों मे हिन मानकर अनुभव नहीं करता है ।
भावार्थ-- जो कोई जाने कि जीव अमरतीक है गेमा जानकर अनुभव करते हैं, सो इस तरह नो अनुभव नहीं है। जीव अमूर्त तो है परन्तु अनुभव के समय तोगमा अनुभव है कि जीव चतन्य लक्षण है। क्योंकि अजीव अर्थात अचेनन द्रव्य भी दो प्रकार का है-वर्ण-ग्म-गंध-म्पर्श मे मंयुक्न नो एक पुदगल द्रव्य हो है । धमंद्रव्य, अधर्मद्रव्य, कालद्रव्य, आकागद्रव्य ये चार द्रव्य वर्ण-ग्म-गंध-म्पर्म में रहित अमूनिक द्रव्य कहे हैं। इस तरह अमूर्तपना
१. कहीं पर "स्वसंवेद्यमिदं स्फुटम्" ऐमा पाठ भी है।