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समयमार कलश टीका अचंतन द्रव्य के भी है। इलिए अमूसंपना जान कर जीव का अनुभव न करी-चंतन जान कर अनुभव करो ॥१०॥ संबंया-रूप-रसवंत मरतीक एक बगल,
कप दिन और यों अजीव द्रव्य दिया है। ज्यारिप्रमूरतीक जीव भी प्रमूरतीक, याहीतं ममूरतीक बस्तु ध्यान मुषा है।
पौर सो न कहूं प्रगट पाप प्रापही सों, ऐसोचिर चेतन स्वभाव शुद्ध सुषा है। चेतन को अनुमी पारा जग तेई जीव, चिन्ह के प्रखर रस चाखको अषा है ॥१०॥
बसंततिलका जीवावजीवमिति लक्षणतो विमिन्नं, मानी बनोज्नुनपति स्वयमुल्लसंतं । प्रमानिनो निरवषिप्रविम्मितोऽयं
मोहस्तु तत्कषमहोबत नानटीति ॥११॥ जीव का लक्षण चतन्य है और अजीव का लक्षण अचेतन है अर्थात् पर है। इस प्रकार जीव द्रव्य से पुद्गल आदि सहज ही भिन्न है। ऐसा सम्यकदृष्टि जीव स्वानुभव मे प्रत्यक्षरूप अनुभव करता है। जीव तो स्वयं अपने गुष-
पर्याय से प्रकाशमान है । परन्तु अनादिकाल से पां संतानरूप पसरे हुए मोह के वश में पड़ा अज्ञानी मिथ्यादृष्टि (भ्यक्ति) जीव और कर्म को एकत्वल्प मान कर विपरीत संस्कार में पड़ा हुआ है-यह कैसा नाश्चर्य है ॥११॥ सबया-बेतन जीव जीव प्रचेतन, लमरण मेव उभं पर न्यारं।
सम्यक दृष्टि उपोत विचारण, भिन्न ललक्षिके निरबारे। जे जगमाहि प्रनावि प्रशस्ति, मोह महामर के मतवारे । तेजा चेतन एक कह, तिन को फिर टेक टर नहि टारे ॥११॥
वसंततिलका पस्मिन्ननारिनि महत्यविवेकनाट्ये