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ममयमार कलग टीका मामग्री, जिग गुदगल द्रव्य में हुई है वह बही पुद्गल द्रव्य है । निश्चय में ऐमा ही है । आन्मा अजीव द्रव्यम्प नहीं हुआ। जीव द्रव्य नो ज्ञानगृण का समूह है। जीव दव्य भिन्न है, गांद परद्रव्य भिन्न है।।
भावार्थ लक्षण भेद वस्तु को मंद होता है। इसलिए चैतन्य लक्षणयुक्त जीववस्तृ भिन्न है. अवतन लक्षणयुक्त गर्गगदि भिन्न है।
प्रग्न कहने का नागा ही कहा जाता है. एकद्रिय जीव, वद्रिय जीव. प्रत्यादि । व जीव. मनुष्य जीव इन्यादि । गगी जीव, द्वषो जीव इत्यादि।
उनर व्यवहार में मा कहा जाता है। निश्चय में ऐसा कहना मटा है। मा कहते है | दोहा वर्गादिक पुदगल दशा, घरे जोत्र बहस्प।
दस्त विचारत करम मों, भिन्न एक चिद्रप ॥७॥
अनुष्टुप घृतकुम्माभिधानेऽपि कुम्भो घृतमयो न चेत् । जीवो वर्णादिमजीवो जल्पनेऽपि न तन्मयः ॥८॥
जमे---घड़ा घी का नहीं मिट्टी का है। न्तु जिस घड़े में थी हाला है उमको याप 'घी का घडा' मा कहते हैं नथाप घड़ा मिट्टी का है. धी भिन्न है। इसी प्रकार जीव को शरीरमय, मुख-दसमय, गग-दंषमय उनके मयोग के कारण कहने है. तथापि जीव अर्थात् चेतनद्रव्य नो गर्गर नहीं, जीव तो मनुष्य नहीं, चेननम्वरूप जीव भिन्न है।
भावार्थ-आगम में जहां गृणग्थान का स्वरूप कहा है वहा सा कहा है- देव जीव, मनुष्य जीव, गगीजीव, हंपीजीव इत्यादि । बहुत प्रकार से कहा है । सो सभी कथन व्यवहार मात्र में है। द्रव्य स्वरूप को देख तो
सा कहना झठा है। यहा प्रश्न उठता है कि फिर जीव कसा है ? जैसा है, बंसा कहते हैं ॥८॥ दोहा - ज्यों घट कहिए घीव को, घट को रूप न धोव ।
स्यों धरणादिक नाम सों, जड़ता लहै न जीव ॥८॥