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समयमार कलश टीका
भावार्थ - जिननी कुछ भी कर्म जाति है वह समस्त हेय है। उनमें कोई भी कर्म उपाय नहीं है। कैसे अनुभव में आया, वैसा ही कहते हैं ज्ञानगुण ही जिसका स्वरूप है, उस स्व का प्रत्यक्ष रूप से आस्वाद करके । भावार्थ - जितने भी विभाव परिणाम हैं वह कोई भी जीव के (अपने) नहीं ।
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जीव शुद्ध चैतन्य मात्र है - ऐसा अनुभव करना कर्तव्य है ॥ ४ ॥ कवित -जब चेतन संभारि निज पौरुष,
शुद्ध
चेतन को,
निरलं निज दृग सों निज ममं । तब मुखरूप बिमल प्रविनाशिक, जाने जगत शिरोमणि धर्म ॥ अनुभव करं रमं स्वभाव वमं सब कर्म । इति विधि स मुकति को मारग, प्ररु समीप जावं शिव समं ॥४॥ वसंततलिका
वर्गाचा वा रागमोहादयो वा मिन्ना भावाः सर्व एवास्य पुंसः । तेनवान्तस्तस्वतः पश्यतोऽमी
नो दृष्टाः स्युष्टमेकं परं स्यात् ॥५॥
जितना भी अशुद्ध विभाव परिणाम है, वह सब, निश्चय मे, विद्यमान
शुद्ध चैतन्य द्रव्य मे अर्थात् जीव के स्वरूप से निराला है, भिन्न है। कर्म तो
अचेतन शुद्ध पुद्गलपिण्ड रूप है इसलिए वह तो । रागमोहादिक विभाव यद्यपि अशुद्धरूप हैं दीखते है । ऐसे जो रागद्वेष मोहरूप जीव सम्बन्धी स्वरूप के अनुभव में जीव स्वरूप में भिन्न हैं ।
जीव स्वरूप से निराला ही तथापि देखने में चेतना से परिणाम हैं वे भी जीव
प्रश्न - विभाव परिणाम को जो जीव में भिन्न भावार्थ हमारी समझ में नहीं आया । भिन्न कहने से अथबा अवस्तु रूप भिन्न है ?
उत्तर - अवस्तुरूप है । इस कारण जो जीव शुद्ध स्वरूप का अनुभवन करने वाला है उसको विभाव परिणाम नहीं होता है। उसको तो उत्कृष्ट शुद्ध चैतन्य द्रव्य ही दृष्टि गोचर होता है ।
कहा सो भिन्न का वस्तुरूप भिन्न है ?