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ममयसार कमा टीका तदपि परमन विचमत्कारमात्र,
परविरहितमन्तः पश्यन्तां नंब किश्चित् ॥५॥ व्यवहार नय के कथन का विवरण-जोर वस्तु निर्विकल्प है। वह तो मानगोचर है। इस बीववस्तु का बब कपन करना पड़े तो बही कहना पड़ता है कि जिसका गुण दर्शन-बान-बारिष है वह बीच है। यदि किसी ने बहुत साधना की है, उसको भी ऐसे ही कहना पड़ेगा। इतना भी कहने का नाम व्यवहार है।
शंका-जो वस्तु निर्विकल्प है, उसमें विकल्प दा करना युक्तिसंगत नहीं है।
समाधान-व्यवहार नय हम्नावलम्बन है। जैसे कोई नीचे गिरा हवा हो तो उसको हाथ पकड़कर ऊपर लेते हैं। इसी तरह गुण से गुणी का मंद करके कपन करना जान उत्पन्न करने का अंग है। जैसे-जीव का मक्षण बेतना कहने मे पुद्गलादि अचेतन द्रव्यों से भिन्न अप होने की प्रतोति होती है। इस तरह जब नक अनुभव हो नब तक गुण-गृणी का भेद करके कपन करना ज्ञान का अंग है। म्यवहार नय कमे जीव का हस्तावलम्बन है ? विद्यमान शान उपजने को आरम्भिक अवस्था में जिसने सर्वस्व स्थापित किया है अर्थात् जो जीव सहज हो अज्ञानी है और जीवादि पदायों के द्रव्यपर्याय स्वरूप को जानने का अभिलाषी है उसको गुण-गुणी भेदरूप कथन करना योग्य है। यपि व्यवहारलय हस्वावलम्बन है मोर मान को अपेक्षा मूठा है, परन्तु कैसे जीव के लिए व्यवहारनयमठा है? ऐसे जीव के लिए व्यवहारनय मूठा है जो चेतना, प्रकाश मात्र शुरुजीव वस्तु को प्रत्यक्ष रूप से अनुभवन करता है। बस्तु का प्रत्यक्ष अनुभव होने पर व्यवहार सहज ही छूट जाता है । कैसी है (पट जीब) बस्तु ? उतष्ट है, उपादेय है, पर-वस्तु अर्थात् द्रव्यकर्म, नोकर्न मोर माक्र्म से भिन्न है ॥५ सया-ज्यों मर कोक गिरे गिरि सोलिहि, हो हि हे माहीं।
त्यों पुष को विपहार भलो, तबला जवलो शिव प्रापति नाहीं॥ यपि यो परमारण तगाषि, स परमारव चेतन माहीं । गोष पन्यापक है पर सो, बिहार तु तो पर की परवाहीं ॥५॥