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ममयसार कलश टीका
पर्याय को लिए हुए, शुद्ध चेतना मात्र वस्तुस्वरूप स्वाद में आवे तब
सम्यक्त्व है ।
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शंका-सम्यक्त्वगुण जीववस्तु से भेदरूप है अथवा अभेदरूप ? उत्तर—अभेदरूप । यह सम्यक्त्व जीवद्रव्य का गुण मात्र है || ६ || सर्वया - शुद्धनव निचं प्रकेला प्राप चिदानन्द, अपने ही गुरण परजाय को गहत है । पूरण विज्ञानघन सो है व्यवहार मांहि, नवतत्वरूपी पंचद्रव्य में रहत है ॥
पंचद्रव्यनवतत्व न्यारे जीव न्यारो, लहे सम्यकदरस यह औौर न गहत है । सम्यकदरस जोई प्रातम सरूप सोई, मेरे घट प्रगटो बनारसी कहत है ॥६॥
अनुष्टुप छन्द
प्रतः शुद्धनयायतं प्रत्यग्ज्योतिश्चकास्ति तत् । नवतस्वगतत्वेऽपि मदेकत्वं न मुम्बति ॥७॥
शुद्धनय अर्थात् वस्तुमात्र के विचार से वस्तु जैसी है वैसा ही अनुभव करने से सम्यक्त्व होता है और उसे ही शुद्धस्वरूप कहा है। उसी शुद्ध चेतना मात्र वस्तु का मुक्ति से शब्द द्वारा कथन किया है। शुद्ध वस्तु अपने शुद्ध स्वरूप को नही छोड़ती है ।
शंका- जीव वस्तु जब संसार से छूटती है तब शुद्ध होती है।
उत्तर - जीववस्तु, द्रव्यदृष्टि से विचारने पर त्रिकाल ही शुद्ध है। जिस समय वह नव तत्त्वरूप - जीवाजीवास्रव-बंध-संवर-निर्जरा-मोक्ष-पुण्यपापरूप परिणमित होती है तब भी उसका शुद्ध स्वरूप है जैसे, अग्नि का दाहक लक्षण है । वह काष्ठ, तृण, छप्पर, आदि समस्त जलने वाली वस्तुओं को जलाती है और जलाते समय अग्नि जलती हुई वस्तु के आकार की ही होती है। तब यदि काष्ठ, तृण, छप्पर, की दृष्टि से देखा जाय तो काष्ठ की आग, तृण की आग या छप्पर की आग कहना सच ही है । परन्तु यदि आग की उष्णतामात्र का विचार करें तो उष्णमात्र ही है और काष्ठ की आग, तृण की आग, छप्पर की आग ऐसा समस्त विकल्प झूठा है। इसी तरह जीव का नवतत्त्वस्वरूप परिणाम है। वह परिणाम कोई तो शुद्ध है और कोई अशुद्ध