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जीव-अधिकार अर्थ ठहग कि जीव-कर्म एक नहीं भिन्न-भिन्न है। यदि जीव-कर्म एक होता तो इतना म्ननि भेद कैसे होता ॥७॥ कवित--नन-चेतन व्यवहार एक से,
निह भिन्न-भिन्न हैं दोई। तनु को स्तुति विवहार जीव युनि,
नियतवृष्टि मिथ्या युति मोई ।। जिन मो जीव, जीव मो जिनवर,
तनु-जिन एक न माने कोई। ना कारण तनु को जो थुति,
मो जिनवर को थुति नहीं होई ॥२७॥
मालिनी छन्द इति परिचिततत्त्वरात्मकार्यकतायां नर्यावमजनयुक्त्यात्यन्तमुच्छादितायाम् । अवतरति न बोधो बोधमेवाद्य कस्य स्वरमरभसकृष्टः प्रस्फुरने के एव ॥२८॥
इम प्रकार भंदकर समझाए जाने पर त्रिलोक में मा कोन जीव है जिमको जानक्ति, स्वरूप का प्रत्यक्ष रूप में अनुभव करने के लिए अब भी परिणमनील नहीं होगी !
भावार्थ-- जीव और कर्म का भिन्नपना अति प्रकट करके दिखाया, उमे मृन कर भी जिम जीव का ज्ञान नहीं उपजना, वह भाग्यहीन है।
जोवादि मकल द्रव्य के गृण-पर्याय में परिचित भगवान सर्वज्ञ ने द्रव्याथिक-पर्यायाथिक नयों के पक्षपात का विभाग द निरूपण करके, भिन्न स्वरूप-वस्तु के माधनाथं, जीव द्रव्य को अत्यन्त निःमंदहरूप में, इस प्रकार प्रकट कर दिया है जैसे किमी छिपी हुई सम्पत्ति को प्रकट कर देते हैं। परिकम संयोग मे ढंका होने में चेतन द्रव्य और कमंपिड की एकता का भ्रम पैदा होता था मां भ्रांति श्री नीर्थकर का उपदेश मूनकर मिटनी है और कर्म संयोग से भिन्न शुद्ध जीव स्वरूप का अनुभव होता है। ऐमा अनुभव सम्यक्त्व