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समयसार कला टीका
करने में ।
जीव निसन्देह शब्द है । नेनन द्रव्य का अनात्मा अर्थात् द्रव्यकर्म, भावकर्म, नाकमं इत्यादि समस्त विभाव परिणामां में तादात्म्य किसी भी अतीत-अनागत-वर्तमान काल की समय-धड़ी-पहर-दिन-वरम में किसी भी तरह नहीं ठहरना ।
भावार्थ - जीव द्रव्य, धातु-पाषाण संयोग की तरह पुद्गल कर्म मे मिन्न. हुआ हो चला आ रहा है। मिलने में मिथ्यात्व रागद्वेषरूप, विभाव वेतन परिणामरूप परिणमना ही आया है। इस तरह परिणमने ऐसी दशा हा गई कि जो जीवद्रव्य का निज स्वरूप है केवलज्ञान- केवन्नदर्शनअतीन्द्रियसुख कवलवीयं उस अपने स्वरूप में तो जीवद्रव्य भ्रष्ट हुआ तथा मिथ्यात्वरूप विभाव परिणाम में परिणमित हुआ । ज्ञानपना भी छूटा । जीव का निज स्वरूप अनन्त चतुष्टय है । र सुख-दुख मोह राग-द्वेष इत्यादि समस्त पुद्गल कर्म की उपाधिया है, जीव का स्वरूप नहीं ऐसी प्रतीति भी छूटी। प्रनानि छूटने से जीव मिथ्यादृष्ट हुआ। मिध्यादृष्टि होने में ज्ञानावरण कर्म वध करने वाला हुआ उस कर्म बंध के उदय होने से जीव नार गनियां में भ्रमण करना है। इस प्रकार ही समार की परिपाटी है । इस प्रकार समार मे भ्रमने भ्रमने किसी भव्यजीव का शव निकट संसार आ जाना है तब जीव सम्यक्त्व ग्रहण करता है। सम्यक्त्व ग्रहण मे पुद्गलपिङरूप मिध्यात्वकर्मा का उदय मिटना है, तथा मिथ्यात्वरूप विभाव परिणाम मिटता है। विभाव परिणाम के मिटने में शुद्ध स्वरूप का अनुभव होता है। ऐसी सामग्री मिलने पर जीवद्रव्य उद्गलकम ने तथा विभाव परिणाम में सर्वथा भिन्न होता हुआ अपने अनंतचनुष्य को प्राप्त होता है । दृष्टांत जन माना धातु-पाषाण मे ही मिला आया है। तथापि आग का संयोग पाकर उस पाषाण में माना भिन्न हो जाता है ॥२६॥
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सर्वया - यही वर्तमान समे भव्यन को
मियो मोह, कर्ममन मों ।
लग्यो है अनादि को पग्यो हे उद करे मेदज्ञान महा रवि को निधान. उर को उजागे भारी न्यारो बुंद दल सों ॥।
जाते थिर रहे अनुभी विलास गहे फिर, कबहूं अपनापो न कहे पुद्गल मों 1