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समयमार कलश टीका
परिणमन मिटता है. उस काल अवश्य स्वानुभव शक्ति होती है ।
अनादिनिधन, प्रगटरूप में चेतनारूप परिणमित अपनी शुद्ध चैतन्य वस्तु का स्वसंवेदन प्रत्यक्षरूप से आस्वादन करने से मिथ्यात्व परिणमन मिटता है ||२३||
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सर्वया - बनारसी कहे भया भव्य सुनो मेरी सीख,
केहू भांति कंसेह के ऐसो काज कोजियो । एक मुहरत मिध्यात्व को विध्वंस होइ,
ज्ञान को जगाय श्रंस हंस खोज लीजिए || वाही को विचार वाको ध्यान यह कौतूहल,
योंही भर जनम परम रस पीजिए । तजि भववाम को विलास सविकाररूप,
अंत कर मोह को अनन्त काल जोजिए ॥ २३ ॥ शार्दूलविक्रीडित छन्द
कान्त्येव स्नपयन्ति ये दशदिशो धाम्ना निरुन्धन्ति ये, धामोद्दाममहस्विनां जनमनो मुष्णन्ति रूपेण ये । दिव्येन ध्वनिना सुखं श्रवणयोः साक्षात्भरन्तोऽमृतम्, वन्द्यास्तेऽष्टसहस्रलक्ष रणधरास्तीयश्वराः सूरयः 112311
शंका- कोई मिथ्यादृष्टि कुवाद मतांतर की स्थापना करता है कि जीव और शरीर एक हो वस्तु है। जिस तरह जैन मानते हैं कि शरीर से जीव भिन्न है । उस तरह नही - एक ही है। इसलिए शरीर की स्तुति करने से आत्मा की स्तुति होती हैं। ऐसा जैन भी मानते है कि तीर्थकर देव त्रिकाल नमस्कार करने योग्य हैं। तीर्थकर के शरीर की दीप्ति निश्चय में दशों दिशाएं (पूर्व, पश्चिम, उत्तर दक्षिण- चार दिशा, चार कोणरूप विदिशा, ऊर्द्ध और अध ) पवित्र करती है । इस प्रकार तीर्थकर के शरीर का वर्णन किया है। ऐसे जो तीर्थकर है उनको नमस्कार है। इससे हमको ऐसी प्रतीति हुई कि शरीर और जीव एक है। तीर्थकर शरीर के तेज से उम्र है, तेजस्वी है जिसमे कोटिसूर्य का प्रताप भी रुकता है ।
भावार्थ - तीथंकर के शरीर में ऐसी दीप्ति है कि यदि करोड़ सूर्य्य होते तो उस दीप्ति में करोड़ सूर्य की भी दीप्ति रुकती अर्थात् फीकी पड़ती ।