________________
१३
जीव-अधिकार जगत के गव जीव पूर्वोक्न निश्चय में शुद्ध जीववस्तु का जैसी है वैसा प्रत्यक्षम्प में बमवेदनम्प आम्वादन कगे। मोह अर्थात शरोरादिक परद्रव्य मे एकत्वबाद छोटकर अनभवन कगे। भावार्थ-मसारीजोव को समार में वमन अनकल गया। शरीरााद पर-द्रका स्वभाव था; परन्तु यह जीव अपना जानकर प्रयनां । मां जब भी वह वपन बद्धि छुटेगी तभी जीव शुद्ध म्वरूप का अनभव करने योग्य होगा। यह गद्ध स्वरूप मब प्रकार प्रकाशमान : । भावार्थ - अनभव गानर होने में कुछ ब्रान्ति नहीं है।
प्रश्न जीव ती गद्ध स्वरूप कहा आर वैसा ही है भी, फिर गगद्वप-माहरूप परिणाम अथवा मखदःखादिम्प परिणाम कौन करता है, कोन भागता है
उनर.- करता ना जीव ही है. भोगना भी जीव ही है । परन्तु यह परिणति विभावका है. उपाधिम्प है. इलिए निजम्वम्प के विचार में जीव का म्वम्प नहीं है । अगद्ध गगादिभाव (अन्यभाव, अनियतभाव, विशेषभाव. मयुक्तभाव। परम्पर पिप एक क्षेत्रावगाह हैं फिर भी अन्यभाव अर्थात् नर-नारक-नियंत्र-देव पर्यायम्प अथवा अनियन अर्थात् अमख्यात प्रदेश मंबंधी मकाच-विस्तार रूप परिणमन,विशंप अर्थात दर्शनज्ञान-चारित्र कपमंद कथन, मयुक्त अर्थात् रागादि उपाधि सहित जितने भी विभाव परिणाम है. वे सभी भाव गद्धस्वरूप में प्रतिष्ठा या गोभा को नहीं पाते हैं। भावार्थ ...बद्ध-म्पष्ट-अन्य-अनियन-विगंप-मंयुक्त जो विभाव परिणाम हैं वे मब मंमारावस्था में जीव के हैं । गद्ध जीवम्वरूप का अनुभव करते हए जीव के ये परिणाम नहीं है। बद्ध-माष्टादि विभावभाव प्रगटम्प मे उपजा हुआ है परन्तु ऊपर ही ऊपर रहता है। भावार्थ-जैसे जीव का ज्ञान गुण त्रिकालगोचर है, वमे रागादि विभाव भाव जीववस्तु मे त्रिकालगोचर नहीं हैं और मोक्ष अवस्था में तो मवंथा हो नहीं हैं। इसमें यही निश्चय हुआ कि रागादि जीवस्वरूप नहीं हैं ॥११॥ कवित-सतगुरु कहें भव्य जीवन सो,
तोरहु तुरत मोह को जेल । सक्तिरूप गहो अपनो गुण,
करह शुद्ध अनुभव को खेल ॥ पुदगलपिंड भावरागाबिक,
इनसों नहीं तिहारो मेल ।