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ममयमार कलश टीका है माला सद्भामान न होन र मात्र पढ़ने का प्रयोजन कुछ नहीं है ।।१।। मक्या शुद्ध पानम प्रातम की अनुभूति विज्ञान विभूनि है मोई ।
बत विचारत एक पदारथ, नाम के भेद कहावन दोई। या मग्वंग पदा ग्वि प्रापहि, ग्रातम ध्यान करे जब कोई । मेटि अगद्ध विभाव दहा तब, द्धि स्वरकी प्रापति होई ॥१३॥
पृथ्वी छन्द अवण्डितमनाकुलं ज्वलदनन्तमन्तर्वहिमंहः परममस्तु नः सहजमुहिलासं सदा । चिदुच्छलननिर्भरं मकलकालमालम्बते यदेकरममल्लसल्लवनखिल्यलीलायितम् ॥१४॥
जो गद्ध ज्ञानमात्र वस्न उत्कृष्ट है. खण्डिन नहीं परिपूर्ण है, आकुलता मे रहत है. अन्दर-बाहर प्रकाराम् परिणमती है. स्वय सिद्ध है. अपने गणपर्याय गे धागप्रवाहमा परिणमती है। जो जानपज त्रिकाल ही चेतन म्वरूप का आधारभून है, ज्ञान परिणमन में भरा हुआ है. और जो उसी प्रकार मर्वाग हो चेतन है । जिस प्रकार नमक की डला सर्वाग ही खारी होती है। वह ज्ञानमात्र वस्तु मुझं प्रकट हो । भावार्थ - इन्द्रिय ज्ञान खण्डित है और यद्यपि चंतन वनमान काल में उस रूप परिणम रहा है तथापि उसका (निश्चय में) म्बम्प नो अतीन्द्रियज्ञान हो है। संसारी अवस्था में जोव कर्मजनित मुखदुःखरूप परिणमता है परन्तु स्वाभाविक मुख नो निज म्वरूप ही है । जीव वस्तु असख्यान प्रदेशी है और ज्ञानगुण उसके सब प्रदेशों में एक-सा परिणमता है। किसी प्रदेश में कम ज्यादा नहीं है ॥१४॥ संबंया -प्रपने ही गुण परजाय सों प्रवाह रूप,
परिणयो तिहं काल अपने प्राधार सों। अन्तर बाहर परकाशवान एक रस, क्षोणता न गहे भिन्न रहे भी विकार सों॥
चेतन के रस सरवंग भरि रग्रा जीव, जैसे लूण-कांकर भर्यो है रस बार सों।