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जितना विकार है उसको दूर करने के लिए जाता रूप रहता है और उस विकार से और ज्यादा न बढ़ जाए इसके लिए शरीराश्रित प्रत तप बादि क्रिया भी करता है पर उन क्रियाओं में भी उसके ममत्व नहीं होता, जब शरीर में ही ममत्व न रहा तो उसके आश्रित क्रियाओं में ममत्व कैसा? इन क्रियाओं में वह खंचतान भी नहीं करता। जब देखता है कि इन्द्रियों और मन चंचल हो रहे हैं तो उपवास करता है और जब उन्हें शिथिल देखता है, अपने ध्यान अध्ययन में कमो आते देखता है तो भोजन का ग्रहण करता है।
सब परिवर्तन बमाचरण स्वाभाविक-ज्ञानी को वस्तु स्वरूप अनुभव में आ गया अतः उसके जीवन में परिवर्तन निश्चित रूप से आता है पर वह सारा परिवर्तन स्वाभाविक होता है। हम यदि ऐसा कहें कि पर पदार्थ मेरा नहीं है पर अनुभव में यही आए कि है तो मेरा ही तो फिर हमारा जीवन बदलेगा नहीं और यदि बाहर में कुछ परिवर्तन दीखं भी तो वह लाया हुआ ही होगा, आया हआ नहीं एवं लाया हआ आवरण वास्तविक नहीं होता और इसके लिए निरन्तर चिन्ता रहती है जैसे कोई स्त्री ऊपर से बहुत ज्यादा शृंगार करके जा रही है तो वह चूंकि उसकी स्वाभाविक मुन्दरता नहीं है अतः उसे बार-बार दर्पण में मंह निहारना पड़ता है कि कहीं कुछ बिगड़ तो नहीं गया, निरन्तर उसे उसको ही चिंता रहती है। पर ज्ञानी का आचरण ऊपर से ओढ़ा हुआ नहीं होता, उसे बार-बार यह देखना नहीं पड़ता कि कहीं कोई कुछ गल्ती तो नहीं हो रही। सम्यग्दर्शन के आठ अंग उसे पालने पड़ते हों ऐसा नहीं वरन् वे स्वतः हो पलते हैं। वह बाहरी पर पदार्य में सुख दुःख नहीं मानता, ऐसा नहीं वरन् उसके पर पदार्थ में सुख दुःख पैदा ही नहीं होता।
बहरी कृत्यों से जानी जानीपने का माप नहीं-जोव को बाहर की दशा व कृत्यों से उसके जामी अज्ञानीपने का माप नहीं किया जा सकता। हो सकता है अज्ञानी के कृत्य ज्यादा शभ दिखाई दे और ज्ञानी के अशुभ । जानी अज्ञानीपने का सम्बन्ध तो भीतर ज्ञान की जागृति व मूर्छा से हैं। यदि बाहर में जानी अज्ञानी दोनों के कृत्य एक जैसे भी दिखाई दे रहे हैं तो भी भीतर में उन दोनों के अभिप्राय में महान अन्तर है । ज्ञानी उन कृत्यों को करना नहीं चाहता, उसकी रुचि नहीं है उनमें, रुचि तो नसकी मात्र ज्ञाता रूप रहने में ही हैं। कर्म के उदय की बरजोरी में काम करना और चाह करके करना दोनों में महान अन्तर है। पहले भाकपी ली और अब उसका