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(२१) अपमान सम्मान कैसा? कोई इष्ट नहीं तो राग किससे एवं कोई अनिष्ट नहीं तो देष किस से ? इस प्रकार निज का आश्रय लेने वाले के कषाय करने का भी अभिप्राय नहीं रहा। जैसे एक दीपक एक झोपड़े में जल रहा है वह यदि स्वयं को दीपक रूप न देख कर सोपड़े रूप माने तो उसे झोपड़े के चले जाने का निरन्तर भय बना रहेगा, मोपड़े सम्बन्धी हजारों चिन्ताएँ व इच्छाएँ उसमें जन्मेंगी, अन्य महल में जल रहे दीपकों से देष होगा एवं स्वयं के मोतर महल में जाने का राग उपजेगा परन्तु यदि वह स्वयं को झोंपड़े रूप न देखकर अपने रूप, दीपक रूप, ही देखे तो न तो झोपड़े सम्बन्धी कोई भय या चिन्ता रहेगी, न महल में जाने की इच्छा होगी और न ही अन्य महल वाले दीपकों से द्वेष होगा, वह तो स्वयं को मात्र झोपड़े को प्रकाशित करने वाला, जानने वाला हो देखेगा परन्तु उस रूप नहीं।। पर्याय की सारी कमी अपनी बजाता रूप रहने से उसका प्रभाव
शानी को द्रव्य दृष्टि जागति हुई और वह स्वयं को ज्ञान रूप ही देख जान रहा है। द्रव्य दृष्टि से तो वह शाता ही है और जब तक साधक रूप अवस्था है तब तक ज्ञान रूप रहने को ही अपना कार्य समझता है पर द्रव्य दृष्टि का भी एकान्त नहीं करता, पर्याय को भी जानता है और जितनी पर्याय में कमी है उसे अपनी कमजोरी व गस्ती मानता है और उसका कारण पर्याय में होने वाले विकार को जानता है, पर्याय दृष्टि से विकार से हटना भी चाहता है एवं बार-बार द्रव्य स्वभाव का अवलम्बन लेकर अपनी उस कमजोरी को दूर करने का पुरुषार्थ करता है। ज्ञाता बनते ही विकार दूर होने लगते हैं, क्रोध का ज्ञाता होते ही क्रोध का अभाव होने लगता है, वह अदृश्य हो जाता है, कामवासना का ज्ञाता होते ही उसका अभाव होने लगता है, वह बर्फ की भांति पिघलने लगती है क्योंकि विकार व वासना तो चेतना के सहयोग के कारण ही फलते-फूलते हैं और जब चेतना का सहयोग नहीं रहता तो वे नष्ट प्रायः हो जाते हैं । द्रव्य दृष्टि से तो आत्मा त्रिकाल शुद्ध है ही, पर्याय में अशुद्ध थी और वह पर्याय की अशुद्धता उस शुद्ध द्रव्य के निरन्तर अनुभव से कम होती हुई एक दिन समाप्त हो जाती है और तब पर्याय के भी शुद्ध हो जाने पर द्रव्य परिपूर्ण शुद्ध हो जाता है।
दोनों दृष्टियों का मान-पर 'जीव शुद्धता के लिए पुरुषार्थ करता है' यह बात भी पर्याय दृष्टि से कही जाती है, द्रव्य दृष्टि से तो वह उसका