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(२७) एक समय ऐसा भाएगा कि वह धुंधमा होते-होते हमें दिखाई देना हो बाएना तो हम यही तो कहें कि यह मक्ति अब नहीं रहा पर यह कपन हमारे ज्ञान की अपेक्षा हो सत्य है, वास्तव में यदि दे, तो दूर क्षितिज पर सम्पक्ति का सदभावकहीं न कहीं अवश्य है ही बार कोई और पक्ति जिसकी दृष्टि हमसे ज्यादा तीक्ष्ण है उसे उस समय भी देखकर यही कहेगा किला तो जा रहा पह, निषेध कसे कर रहे हो तुम उसका?' इस प्रकार विभिन्न कथन विभिन्न व्यक्तियों की अपेक्षा सत्या हो सकते है।मतः पतु मु. में निर्विकल्प स्वानुभव का सर्वचा निषेध करना मोवमार्ग काही निषेध करना है। पौषे गु० में स्वानुभूति होती है बार बतीनिय बानन्द का प्रत्यक्ष वेदन होता है । वह मानन्द 'मैं हूं, पुट हूँ, निरंजन हूँ, निर्विकार हूँ इस प्रकार के विकल्पोंजनित नहीं होता वरन् बारम बस्तु के प्रत्यक्ष स्वादयनित होता है। उसकी महिमा ही कुछ और है। कल्पना करके भी अगर देखा जाए कि किसी समय यदि हम ऐसे हो खून्य सेठ जाएं और कोई भी विकल्प न करें तो ही कितनी शांति मिलती है जबकि उस समय अबुद्धि व बुद्धिपूर्वक लाखों विकल्प खड़े रहते हैं तो जिस समय बुद्धिपूर्वक के कोई विकल्प न रहें उस समय कितनी शांति मिलती होगी जो कि वर्णनातीत है।
यह अन्य ढूंडारी भाषा में था। इसकी स्वाध्याम दिल्ली बाने पर मंदिरजी में शास्त्र सभा में की। जन समुदाय को मध्यात्म की तरफ दषि बढ़ो। भाई महेन्द्रसैन जी ने कहा कि इस अन्य की शुद्ध हिन्दी हो जाती तो सबको नाम मिलता। मैंने उनसे अनुरोध किया कि यह काम नापको करना हो चाहिए क्योंकि यह टीका मारम अनुभव के लिए बहुत ही प्रेरणादायक है। उन्होंने अन्य की टीका करनी प्रारम्भ की, बनी दो बध्याय पपये कि वे अस्वस्थ हो गए। एक रोज बोले कि यह काम बाकी पता लगता है। केन्तर के रोग के कारण उनको वेचनी पो परन्तु उस हालत में भी इसे पूरा करने की उन्होंने चेष्टा की। एक अध्याय मोर लिखा बोर एक बाकी छ गया वो बाबू महताबसिंहनी की पुषी. कुंदमता ने पूरा किया। प्रस्तावना मे भी इनका पूर्ण योगदान रहा है। धन्यवाद की पाय है। इसके एक संशोधन का सब काम श्री पपचन्द्र शास्त्री वीर सेवा मन्दिर ने बड़ी भवन से किया जिसके लिए उनका बहुत ही आभार है।
इस ग्रंथ को पाने की प्रेरणा बड़े मंदिरवी, कूचा सेठ में बाल सा