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जैन विद्या के आयाम खण्ड -६
विश्वसनीय व्यक्तित्व के धनी डॉ० सागरमल जैन
___ सत्येन्द्र मोहन जैन जैन धर्म में गुरु का महत्त्वपूर्ण स्थान है। प्रभु की प्राप्ति के मार्ग का मार्ग दर्शक गुरु ही है, वही हमारे जीवन में शुभ संस्कारों के बीज वपन करता है। जैन धर्म के महामन्त्र-नमस्कार मन्त्र में गुरुजनों को प्रणाम किया गया है। मुझे भी अपने जीवन में जो कुछ संस्कार मिले हैं वे, माता-पिता और गुरुजनों से ही प्राप्त हुये हैं। मैं अपने जीवन के प्रारंभिक काल में प्रो०
ओमप्रकाश जी जैन और श्री कामता प्रसाद जी जैन से पर्याप्त रूप से प्रभावित रहा हूँ । कामता प्रसाद जी Voice of Ahimsa नामक पत्रिका निकालते थे उस पत्रिका के अंकों को मैंने संगृहीत करके रखा था और गत वर्ष पार्श्वनाथ विद्यापीठ को भेंट किया। डॉ० सागरमल जी जैन से मेरा परिचय पार्श्वनाथ विद्यापीठ के माध्यम से ही हुआ, मैं शासकीय सेवा में फैजाबाद से स्थानान्तरित होकर अधिशासी अभियन्ता के पद पर सन् १९८९ ई० में गाजीपुर में नियुक्त हुआ, मेरे परिवार ने गाजीपुर की अपेक्षा वाराणसी में रहने की इच्छा व्यक्त की, फलत: मैं दिगम्बर जैन मन्दिर नरिया के नीचे का भाग किराये पर लेकर वाराणसी में रहने लगा । पूर्व से ही मेरी रुचि जैन-कला के अध्ययन और कलाकृतियों के संग्रह में रही अपनी जिज्ञासा भावना को लेकर मैं पार्श्वनाथ विद्याश्रम पहुँचा और वहीं मुझे डॉ० सागरमल जैन से परिचय हुआ उनके मोहक व्यक्तित्व ने मुझे आकर्षित किया और मैंने सेवानिवृत्ति के बाद भी वाराणसी में ही रहने का निश्चय किया मेरी धर्मपत्नी भी उनकी धर्मपत्नी के स्नेह से ऐसी जुड़ गयीं कि मुझे लगने लगा कि हम एक ही परिवार के हैं।
डॉ० सागरमल जैन का व्यक्तित्व इतना प्रभावी है कि उन्होंने मुझे भी जैन साहित्य के अध्ययन के लिये प्रेरित किया और समय-समय पर दिशा निर्देश दिया। मैंने जब जैन मिलन की मीटिंग अपने घर पर आयोजित की और उसमें अपने निजी संग्रह की जैन मूर्तियों को प्रदर्शित किया, इसका उद्घाटन भी डॉ० साहब ने ही किया, मैंने इस अमूल्य धरोहर की संरक्षक एवं पथ प्रर्दशन के सन्दर्भ में डॉ० सागरमल जैन से चर्चा की और उन्हीं की प्रेरणा से मैने यह अमूल्य धरोहर पार्श्वनाथ विद्यापीठ को प्रदर्शन एवं संरक्षण के हेतु समर्पित कर दिया। डॉ० साहब ने मुझे कहाकि एक छोटा सा पौधा ही कभी वट वृक्ष का रूप ले लेता है सम्भव है कि पार्श्वनाथ विद्यापीठ के प्रांगण में आपके सहयोग से रोपित यह संग्रहालय देश के जैन संग्रहालयों में अपनी महत्त्वपूर्व पहचान बना ले । डॉ० साहब का व्यक्तिव एक प्रशासक के व्यक्तित्व की अपेक्षा एक सहयोगी का अधिक है। वे आदेश नही देते, स्वंय ही कार्य करने लगते हैं, परिणाम यह होता है कि विद्यापीठ का समस्त स्टाफ उनके साथ कार्य में जुट जाता है। मैने देखा कि मेरे द्वारा भेट की गयी भारी मूर्तियां भी उन्होंने अपने सहयोगियों के माध्यम से ऊपर हाल में पहुँचवा दी । मैंने दिगम्बर जैन मन्दिर भेलूपुर के पंचकल्याणक महोत्सव के अवसर पर भेलूपुर के पुरातात्त्विक महत्त्व को लेकर एक छोटी पुस्तक प्रकाशित की, जब डॉ० साहब ने उस पुस्तक को देखा तो उन्होंने अपनी उदारता और सदाशयता का परिचय देते हुए न केवल उस पुस्तक की प्रशंसा की अपितु कहा कि आपने जिस श्रम से इस सामग्री को सजाया और प्रस्तुत किया उससे भेलूपुर के पुरातत्त्व के सन्दर्भ में मुझे भी एक नई दृष्टि मिली है । यह उनकी महानता है मैं तो उनसे ऐसे शब्दों को सुनकर ही धन्य हो गया । मेरी दृष्टि में सागरमल जैन की वाराणसी में सबसे बड़ी उपलब्धि दिगम्बर, श्वेताम्बर के भेलूपुर मन्दिर सम्बन्धी विवादों को निपटाकर इस तीर्थ क्षेत्र के विकास को एक नवीन दिशा दी । यह उनके व्यक्तित्व की विशेषता है कि समाज के सभी सम्प्रदाय और वर्ग उन पर विश्वास रखता है । उस विश्वास का ही यह परिणाम था कि आज पार्श्वनाथ जन्मभूमि पर न केवल विपुल निर्माण कार्य हुये अपितु दोनो ही सम्प्रदायों के भव्य मन्दिर भी निर्मित हुये । डॉ० मागरमल जैन और उनके परिवार का मेरे और मेरे परिवार के प्रति जो स्नेह है वह मेरे जीवन की महत्त्वपूर्ण उपलब्धि है।
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