Book Title: Panchsangraha Part 07
Author(s): Chandrashi Mahattar, Devkumar Jain Shastri
Publisher: Raghunath Jain Shodh Sansthan Jodhpur
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७. : संक्रम आदि करणत्रय-प्ररूपणा अधिकार
यथाक्रम निर्देश करने के न्यायानुसार बंधनकरण के अनन्तर अब ग्रंथकार आचार्य बंधसापेक्ष संक्रम आदि तीन करणों का निरूपण करते हैं। उनमें भी संक्रमकरण का विवेचन प्रारम्भ करते हुए सर्वप्रथम संक्रम का लक्षण कहते हैं । संक्रम का लक्षण
बसंतियासु इयरा ताओवि य संकमंति अन्नोन्नं ।
जा संतयाए चिट्ठहिं बंधाभावेवि दिट्ठीओ ॥१॥ शब्दार्थ-बसंतियासु-बंधने वाली प्रकृतियों में, इयरा-दूसरीअन्य, ताओ उनका, वि-भी, य-और, संकमंति--संक्रमण होता है, अन्नोनं-परस्पर-एक दूसरे का, जा--जो, संतयाए-सत्ता से, चिट्ठहि विद्यमान हैं, बंधाभावेवि-बंध का अभाव होने पर भी, दिट्ठीओ-दृष्टियों का ।
गाथार्थ-जो प्रकृतियां सत्ता में विद्यमान हैं, उन अबध्यमान प्रकृतियों का बंधने वाली प्रकृतियों में संक्रमण होता है, उसे संक्रम कहते हैं तथा बध्यमान प्रकृतियों का परस्पर एक-दूसरे में जो संक्रम होता है, वह भी संक्रम कहलाता है। बंध का अभाव होने पर भी दृष्टियों (दर्शनमोहनीय की दृष्टिद्विक) का संक्रम होता है।
विशेषार्थ-गाथा में संक्रम का लक्षण बतलया है। जिसका विशदता के साथ स्पष्टीकरण इस प्रकार है___ बंध की तरह प्रकृति, स्थिति, अनुभाग-रस और प्रदेश रूप विषय के भेद से संक्रम भी चार प्रकार का है।
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