Book Title: Panchsangraha Part 07
Author(s): Chandrashi Mahattar, Devkumar Jain Shastri
Publisher: Raghunath Jain Shodh Sansthan Jodhpur
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पंचसंग्रह : ७
शब्दार्थ - सुहुमेसु-सूक्ष्म, निगोएसु - निगोद में, कम्मठिति — कर्मस्थिति, पलियऽसंखभागूणं - पत्योपम के असंख्यातवें भाग न्यून रहकर, मंदकसाओ - मंद कषाय, जहन्नजोगो - जघन्य योग, जो -- उनसे, एइ - युक्त, सहित रहकर
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जोग्गेसु – योग्य, तो — उसके बाद,
वार -- असंख्यात बार सम्यक्त्व विरति को, च - और, सव्वं उव्वलणं - उद्वलना-विसंयोजना, च- तथा, अडवारा- --आठ बार ।
वसिउ - उ— और,
तसेसु — स भव में, सम्मत्तमसंखको, संपप्प- - प्राप्त करके, देसविरइं- देश - सर्वविरति को, अण- अनन्तानुबंधि की,
चउरुवसमित्तु - चार बार उपशमना करके, मोहं – मोहनीय की,
खवियकम्मो - क्षपितकर्मांश, में, पडुच्च — सम्बन्ध में,
लहु -- शीघ्र, खवेंतो--क्षय करने, भवे - होता है, पाएण प्रायः, तेण - उसका, पगयं - प्रकृत काओ वि - कितनी ही, सविसेसं - विशेष ।
गाथार्थ - सूक्ष्मनिगोद में पल्योपम के असंख्यातवें भाग न्यून कर्मस्थिति ( सत्तर कोडाकोडी सागरोपम ) पर्यन्त मंदकषाय और जघन्ययोग युक्त रहकर --
सम्यक्त्वादि के योग्य त्रस भव में उत्पन्न हो और वहाँ उत्पन्न होकर असंख्य बार सम्यक्त्व, कुछ कम उतनी बार देशविरतिचारित्र, आठ बार सर्वविरति आठ बार अनन्तानुबंधि की विसंयोजना तथा -
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चार बार ( चारित्र) मोहनीय की उपशमना कर शीघ्र क्षय करने के लिये उद्यत ऐसा क्षपकश्रेणि पर आरोहण करता हुआ जीव क्षपितकर्मांश कहलाता है । प्रकृत में-- जघन्य प्रदेशसंक्रमस्वामित्व के विषय में उस जीव का अधिकार है । फिर भी कितनी ही प्रकृतियों के सम्बन्ध में जो विशेष है, उसको यथावसर स्पष्ट किया जायेगा ।
विशेषार्थ – कोई एक जीव सूक्ष्म अनन्तकाय जीवों में पल्योपम
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