Book Title: Panchsangraha Part 07
Author(s): Chandrashi Mahattar, Devkumar Jain Shastri
Publisher: Raghunath Jain Shodh Sansthan Jodhpur
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पंचसंग्रह : ७
शब्दार्थ-आबंध-बंध तक, उन्वट्टइ-उद्वर्तना होती है, सव्वत्थोवट्टणा-सर्वत्र अपवर्तना, ठितिरसाणं-स्थिति और रस की, किट्टिवज्जेकिट्टि सिवाय के, उभयं—दोनों, किट्टिसु-किट्टियों में, ओवट्टणाअपवर्तना, एक्का-एक, केवल ।
गाथार्थ-बंध तक ही स्थिति और रस की उद्वर्तना होती है, तथा अपवर्तना सर्वत्र होती है। किट्टि सिवाय के दलिक में दोनों होती हैं और किट्टियों में एक केवल अपवर्तना ही होती है। विशेषार्थ-जब तक जिस कर्म या कर्म प्रकृतियों का बंध होता है, तब तक ही उसकी स्थिति और रस की उद्वर्तना होती है और जिस-जिसका बंधविच्छेद होता है उस-उसकी स्थिति की और रस की उद्वर्तना नहीं होती है तथा स्थिति-रस की अपवर्तना बंध हो या न हो सर्वत्र प्रवर्तित होती है। क्योंकि अपवर्तना का बंध के साथ सम्बन्ध नहीं है।
इस प्रकार से काल का नियम जानना चाहिये।
'अथवा आबन्धः' यानि जितनी स्थिति या जितने रस का बंध होता है, सत्तागत उतनी स्थिति की और उतने स्थितिस्थानगत रस स्पर्धक की उद्वर्तना होती है, परन्तु अधिक स्थिति या रस की उद्वर्तना नहीं होती है । अपवर्तना का बंध के साथ संबंध नहीं होने १ जितनी स्थिति या जितना रस बंध हो, तब तक सत्तागत स्थिति और
रस बढ़ता है । सत्ता के समान स्थिति या रस बंधे तब और सत्ता से अधिक स्थिति और रस बंध हो तब उद्वर्तना कैसे होती है, यह वर्णन तो ऊपर किया जा चुका है । परन्तु ऐसा हो कि सत्ता से बंध कम हो तब उद्वर्तना होती है या नहीं ? और होती है तो कैसे होती है ? उदाहरणार्थ दस कोडाकोडी सागरोपम की सत्ता है और बंध पांच कोडाकोडी सागर प्रमाण हो तब किस रीति से उद्वर्तना होती है ? यहाँ 'अथवा आबन्धः' कहकर जो बात कही है उससे ऐसा समझ में आता
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