Book Title: Panchsangraha Part 07
Author(s): Chandrashi Mahattar, Devkumar Jain Shastri
Publisher: Raghunath Jain Shodh Sansthan Jodhpur
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संक्रम आदि करणत्रय-प्ररूपणा अधिकार : गाथा २०
२८३
पना के विषय में भी तुल्यापना समझ लेना चाहिये। निक्षेप से उद्वर्तना-अपवर्तना इन दोनों में अतीत्थापना अनन्तगुण है और परस्पर तुल्य है। उससे व्याघात में समय मात्र स्थिति में रहे हुए स्पर्धकों का समुदाय रूप एक वर्गणा से हीन अनुभाग कंडक अनन्त गुण है। उससे उद्वर्तना-अपवर्तना में उत्कृष्ट निक्षेप विशेषाधिक है और परस्पर तुल्य है । उससे पूर्वबद्ध अथवा बध्यमान कुल अनुभाग की सत्ता विशेषाधिक है । क्योंकि वह समयाधिक अतीत्थापनावलिकागत पूर्वबद्ध स्पर्धकों से और बध्यमान स्पर्धकों से अधिक है।
इस प्रकार के अल्पबहुत्व का प्रतिपादन करने के पश्चात् अब उद्वर्तना और अपवर्तना के विषय में कालनियम और विषयनियम का निर्देश करते हैं। काल और विषय नियम
आबंध उब्वट्टई सम्वत्थोवट्टणा ठितिरसाणं । किट्टिवज्जे उभयं किट्टिसु ओवट्टणा एक्का ॥२०॥
१ रसोद्वर्तना में अतीत्थापना आवलिका का असंख्यातवाँ भाग है और
रसापवर्तना में समय न्यून आवलिका के दो तृतीयांश भाग हैं, लेकिन
उपर्युक्त युक्ति से दोनों में स्पर्धक समान हैं, यह जानना चाहिये। २ यहाँ एक वर्गणा का अर्थ एक स्थितिस्थान में रहे हुए स्पर्धकों का
समूह समझना चाहिये। यहां उत्कृष्ट निक्षेप के विषयभूत अनुभाग से पूर्वबद्ध अथवा बध्यमान अनुभाग को अलग-अलग विशेषाधिक बताया है। परन्तु कर्मप्रकृति उद्वर्तना-अपवर्तना करण गाथा ६ में और उसकी व्याख्या में सत्तागत पूर्वबद्ध अनुभाग और बध्यमान इस तरह दोनों प्रकार के संयुक्त अनुभाग को उत्कृष्ट निक्षेप के विषयभूत अनुभाग से विशेषाधिक बताया है और वही अधिक युक्तिसंगत है । इस अंतर को सुधीजन स्पष्ट करने की कृपा करें।
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