Book Title: Panchsangraha Part 07
Author(s): Chandrashi Mahattar, Devkumar Jain Shastri
Publisher: Raghunath Jain Shodh Sansthan Jodhpur
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पंचसंग्रह : ७
तेत्तीसयरा पालिय अंतमुहुत्तूणगाइं सम्मत्तं । बंधित्तु सत्तमाओ निग्गम्म समए नरदुगस्स ॥१०१।। तित्थयराहाराणं सुरगइनवगस्स थिरसुभाणं च । सुभधुवबंधीण तहा सगबंधा आलिगं गंतु ॥१०२।। सुहमेसु निगोएसु कम्मठिति पलियऽसंखभागणं । वसिउं मंदकसाओ जहन्न जोगो उ जो एइ ॥१०३।। जोग्गेसु तो तसेसु सम्मत्तमसंखवार संपप्प। देसविरइं च सव्वं अण उव्वलणं च अडवारा ॥१०४।। चउरुवसमित्तु मोहं लहखवेंतो भवे खवियकम्मो। पाएण तेण पगयं पडुच्च काओ वि सविसेसं ॥१०॥ हासदुभयकुच्छाणं खीणंताणं च बंधचरिमंमि । समए अहापवत्तेण ओहिजुयले अणोहिस्स ॥१०६॥ थीणतिगइथिमिच्छाण पालिय बेछसट्ठि सम्मत्तं । सगखवणाए जहन्नो अहापवत्तस्स चरमंमि ॥१०७॥ अरइसोगट्ठकसाय असुभधुवबन्धि अथिरतियगाणं । अस्सायस्स य चरिमे अहापवत्तस्स लहु खवगे ॥१०८।। हस्सगुणद्ध पूरिय सम्म मीसं च धरिय उक्कोस । कालं मिच्छत्तगए चिरउव्वलगस्स चरिमम्मि ॥१०६।। संजोयणाण चउरुवसमित्तु संजोयइत्तु अप्पद्धं । छावट्ठिदुगं पालिय अहापवत्तस्स अंतम्मि ॥११०।। हस्सं कालं बंधिय विरओ आहारमविरइं गंतु। चिरओव्वलणे थोवो तित्थं बंधालिगा परओ ॥१११॥ वेउव्वेक्कारसगं उव्वलियं बंधिऊण अप्पद्धं । जेट्ठितिनरयाओ उव्वट्टित्ता अबंधित्ता ॥११२।। थावरगसमुव्वलणे मणुदुगउच्चाण सहुमबद्धाणं । एमेव समुव्वलणे तेउवाउसुवगयस्स ॥११३।।
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