Book Title: Panchsangraha Part 07
Author(s): Chandrashi Mahattar, Devkumar Jain Shastri
Publisher: Raghunath Jain Shodh Sansthan Jodhpur
View full book text
________________
२४६
पंचसंग्रह : टीकानुसार इस प्रकार जानना चाहिये कि उपशमश्रेणि किये बिन क्षपकश्रेणि पर आरूढ़ होने वाले अपूर्वकरणगुणस्थान की पहर आवलिका के अंत में संज्वलनलोभ का जघन्य प्रदेशसंक्र होता है।
इस प्रकार से प्रदेशसंक्रम के अधिकृत विषयों का विवेचन कर के साथ संक्रमकरण का वर्णन समाप्त हुआ। अब एक प्रका से संक्रम के भेद जैसे उद्वर्तना और अपवर्तना करणों का वर्ण प्रारंभ करते हैं। ___ संक्रम और उद्वर्तना-अपवर्तना करणों में यह अंतर है । संक्रम तो प्रकृति, स्थिति, अनुभाग और प्रदेश चारों का होता किन्तु उद्वर्तना और अपवर्तना करण, स्थिति एवं अनुभाग (रस के विषय में ही होते हैं। इसके सिवाय और भी जो भिन्नता है, उ यथाप्रसंग स्पष्ट किया जायेगा।
स्थिति, अनुभाग और प्रदेशसंक्रम के समस्त कथन का बोधक प्रारू परिशिष्ट में देखिये।
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org