Book Title: Panchsangraha Part 07
Author(s): Chandrashi Mahattar, Devkumar Jain Shastri
Publisher: Raghunath Jain Shodh Sansthan Jodhpur
View full book text
________________
२५२
पंचसंग्रह : ७
जाता है। इसका तात्पर्य यह है कि बंध के समय जिस समय भोगा जाये, इस प्रकार से नियत हुआ हो, उसे एक आवलिका के बाद किसी भी समय में भोगने योग्य किया जाता है। इस प्रकार से निषेक रचना बदलती है । स्थिति को उद्वर्तना यानि अमुक स्थान में भोगने के लिये नियत हुए दलिकों को उसके बाद कम में कम आवलिका के बाद फल दें, उनके साथ भोगने योग्य करना यह है। जिस स्थिति की उद्वर्तना होती है, उससे ऊपर के समय से लेकर एक आवलिका प्रमाण स्थिति में जीवस्वभाव से दलिक निक्षेप नहीं होता है परन्तु उसके बाद के किसी भी स्थान में होता है, इसलिये आवलिका अतीत्थापना कहलाती है। इससे कम-से-कम एक आवलिका प्रमाण स्थिति बढ़ती है और अधिक-से-अधिक अबाधा से ऊपर की स्थिति के दलिक को बंधती हुई स्थिति में के अंतिम स्थितिस्थान में प्रक्षेप होता है, उस समय प्रभूत स्थिति बढ़ती है। ___ समय-समय बंधते कर्म में बद्ध समय से लेकर एक आवलिका पर्यन्त कोई करण लागू नहीं होता है, इसीलिये सत्तागतस्थिति का नाम लिया जाता है। सत्तागतस्थिति की निषेकरचना बदलकर बद्धस्थिति जितनी हो जाती है। जैसे कि अंतः कोडाकोडी सागरोपम की सत्ता वाला कोई जीव यदि सत्तर कोडाकोडी सागरोपम प्रमाण स्थिति बांधे तब अन्तःकोडाकोडी में भोगी जाये इस प्रकार से नियत हुई निषेकरचना बदलकर सत्तर कोडाकोडी में भोगी जाये, वैसी होती है।
यहाँ यह ध्यान में रखना चाहिये कि जिस-जिस स्थिति की उद्वर्तना होनी हो उसके दलिक उससे ऊपर के समय से लेकर एक अतीत्थापनावलिका को छोड़कर ऊपर ऊपर के किसी भी स्थान में स्थित होते हैं । इस नियम के अनुसार किसी भी स्थान या स्थानों की उद्वर्तना होती है तो सत्तागत स्थिति या रस तत्समय बंधती स्थिति या बंधते रस प्रमाण होता है, किन्तु बंधती स्थिति या बंधते रस से सत्तागत स्थिति या रस नहीं बढ़ता है।
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org