Book Title: Panchsangraha Part 07
Author(s): Chandrashi Mahattar, Devkumar Jain Shastri
Publisher: Raghunath Jain Shodh Sansthan Jodhpur
View full book text
________________
२५६
पंचसंग्रह : ७
निक्षेप की विषय रूप है। कम से कम निक्षेप की विषय रूप स्थिति उपर्युक्त रीति से आवलिका के असंख्यावें भाग ही होती है।
इस तरह यह सिद्ध हुआ कि सत्तागत स्थिति के तुल्य स्थिति का बंध हो तब चरम स्थितिस्थान से लेकर एक आवलिका और आवलिका के असंख्यातवें भाग प्रमाण स्थिति में उद्वर्तना नहीं होती है। किन्तु उसके नीचे के स्थितिस्थान से लेकर बंधती स्थिति की अबाधा प्रमाण स्थिति को छोड़कर किसी भी स्थितिस्थान की उद्वर्तना हो सकती है। यानि उत्कृष्ट स्थितिबंध जब हो तब बंधावलिका, अबाधा और आवलिका के असंख्यातवें भाग सहित एक आवलिका, इतनी स्थिति को छोड़कर शेष स्थिति उद्वर्तना के योग्य है । उसका कारण यह है-बंधावलिकान्तर्वर्ती दलिक सकल करण के अयोग्य हैं, इसलिये बंधती स्थिति की अबाधा प्रमाण सत्तागत स्थिति उद्वर्तना के अयोग्य है क्योंकि उतनी स्थिति अतीत्थापना रूप से पहले कही जा चुकी है, इसीलिये अबाधा के अन्तर्गत रही स्थिति भी उतना के योग्य नहीं तथा एक आवलिका और आवलिका के असंख्यातवें भाग प्रमाण स्थितियां ऊपर कही युक्ति से उद्वर्तना के योग्य नहीं है। अतः उत्कृष्ट स्थिति में से बंधावलिका, अबाधा प्रमाण स्थिति, आवलिका के असंख्यातवें भाग अधिक एक आवलिका प्रमाण स्थितियों को छोड़ कर शेष स्थितियां उद्वर्तना के योग्य जानना चाहिये।
इस प्रकार से उद्वर्तना के योग्य स्थितियों का निर्देश करने के अनन्तर अब निक्षेप की विषयरूप स्थितियों का विचार करते हैं___ जब ऊपर के स्थितिस्थान से आवलिका और आवलिका के असंख्यावें भाग प्रमाण स्थिति को उलांघकर नीचे की पहली स्थिति की उद्वर्तना होती है तब उसके दलिकों को उसके ऊपर के स्थान से आवलिका प्रमाण स्थानों का अतिक्रमण कर आवलिका के अंत के असंख्यातवें भाग प्रमाण स्थानों में प्रक्षेप होता है, वह जघन्य निक्षेप है । उससे नीचे की दूसरी स्थिति की उद्वर्तना होती है तब
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org