Book Title: Panchsangraha Part 07
Author(s): Chandrashi Mahattar, Devkumar Jain Shastri
Publisher: Raghunath Jain Shodh Sansthan Jodhpur

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Page 297
________________ २५८ पंचसंग्रह : ७ निषेध किया है जिस स्थितिस्थान की उद्वर्तना होती है, उसके दलिक का निक्षेप उसके ऊपर के स्थान से लेकर आवलिका प्रमाण स्थिति छोड़कर ऊपर के स्थान में होता है, अतएव उस उद्वर्त्यमानस्थान का भी निषेध किया है तथा अबाधा का निषेध करने का कारण यह है कि अबाधा प्रमाण स्थान के दल का निक्षेप अबाधा के ऊपर के स्थानों में नहीं होता है। ____ इस प्रकार अबाधा से ऊपर रहे स्थितिस्थान की जब उद्वर्तना होती है तब उस स्थितिस्थान की अपेक्षा उत्कृष्ट निक्षेप और सर्वोपरितन स्थितिस्थान की जब उद्वर्तना होती है तब उसकी अपेक्षा जघन्य निक्षेप संभव है। अब इसी बात को स्वयं ग्रंथकार आचार्य स्पष्ट करते हैं अब्बाहोवरिठाणगदलं पडुच्चेह परमनिक्खेवो । चरिमुव्वट्टणगाणं पडुच्च इह जायइ जहण्णो ॥४॥ शब्दार्थ-अब्बाहोवरिठाणगदलं-अबाधा से ऊपर हुए स्थिति-स्थान के दल की, पडुच्चेह-अपेक्षा यहाँ, परमनिक्खेवो-उत्कृष्ट निक्षेप, चरिमुव्वट्टणगाणं-चरम उद्वर्त्यमान दलिक, पडुच्च-अपेक्षा, इह-यहाँ, जायइ-होता है, जहण्णो-जघन्य । गाथार्थ-अबाधा से ऊपर रहे हुए स्थितिस्थान के दल की अपेक्षा यहाँ उत्कृष्ट निक्षेप और चरम उद्वर्त्यमान स्थितिस्थान की अपेक्षा जघन्य निक्षेप होता है। विशेषार्थ-अबाधा से ऊपर रहे हुए स्थितिस्थान की जव उद्वर्तना होती है तब उसके दलिक का उसके ऊपर के स्थितिस्थान से लेकर आवलिका प्रमाण स्थितिस्थानों को छोड़कर ऊपर के समस्त स्थितिस्थानों में प्रक्षेप होता है, जिससे उसकी अपेक्षा यहाँउद्वर्तनाकरण में उत्कृष्ट निक्षेप होता है और जिसके बाद के स्थितिस्थान की उद्वर्तना नहीं होती है, ऐसे अंतिम स्थितिस्थान की उद्वर्तना होने पर उसकी अपेक्षा जघन्य निक्षेप संभव है। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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