Book Title: Panchsangraha Part 07
Author(s): Chandrashi Mahattar, Devkumar Jain Shastri
Publisher: Raghunath Jain Shodh Sansthan Jodhpur
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पंचसंग्रह : ७
शब्दार्थ - अइत्थावणाइयाओ— अतीत्थापना आदि, सण्णाओ-संज्ञायें, सुवि - दोनों में (उद्वर्तना और अपवर्तना में ), पुव्ववुत्ताओ - पूर्व में कही गई हैं, किंतु — लेकिन, अनंत भिलावेण - अनन्त अभिलाप से, फड्डगा - स्पर्धक, तासु — उनमें, वत्तब्वा — कहना चाहिये ।
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गाथार्थ - रस- अनुभाग की उद्वर्तना और अपवर्तना इन दोनों में अतीत्थापना आदि संज्ञायें जैसी पूर्व में कही गई हैं, तदनुसार जानना चाहिये किन्तु दोनों में स्पर्धक अनन्ताभिलाप से कहना चाहिये ।
विशेषार्थ - अनुभाग की उद्वर्तना और अपवर्तना में जघन्य अतीत्थापना, उत्कृष्ट अतीत्थापना तथा आदि शब्द से जघन्य निक्षेप और उत्कृष्ट निक्षेप आदि संज्ञायें पूर्व में कहे गये अनुसार जानना चाहिये । अर्थात् स्थिति की उद्वर्तना और अपवर्तना में अतीत्थापना और निक्षेप का जो जघन्य, उत्कृष्ट प्रमाण कहा है, वही प्रमाण यहाँ जानना चाहिये । क्योंकि जिस स्थिति की उद्वर्तना या अपवर्तना होती है, उसी स्थानगत रसस्पर्धक की भी उद्वर्तना या अपवर्तना होती है। स्थिति की उद्वर्तना या अपवर्तना में जिस स्थितिस्थानगत दलिकों का जहाँ निक्षेप होता है, उस स्थानगत रसस्पर्धकों का भी वहीं निक्षेप होता है । किन्तु यहाँ इतना विशेष है कि निक्षेप और अतीत्थापनादि रूप संज्ञाओं में स्पर्धक अनन्त प्रमाण कहना चाहिये । अर्थात् अनन्त स्पर्धक उनमें होते हैं ।
इस प्रकार से अनुभाग- अपवर्तना का वर्णन करने के पश्चात् अब अनुभाग अपवर्तना में अल्पबहुत्व का कथन करते हैं
१. प्रत्येक स्थितिस्थान अनन्त स्पर्धक प्रमाण होता है । जिससे उद्वर्तना अनन्त स्पर्धकों की होती है, इसी प्रकार उसका निक्षेप भी अनन्त स्पर्धक में होता है । इसीलिये यहाँ निक्षेप और अतीत्थापना आदि संज्ञाओं में रसस्पर्धकों को अनन्त शब्द द्वारा अभिलाप्य कहा है ।
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