Book Title: Panchsangraha Part 07
Author(s): Chandrashi Mahattar, Devkumar Jain Shastri
Publisher: Raghunath Jain Shodh Sansthan Jodhpur
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पंचसंग्रह : ७
है। उस जघन्य अबाधारूप अतीत्थापना से भी जघन्य अतीत्थापना आवलिका प्रमाण है एवं वह उदयावलिका रूप है। क्योंकि उदयावलिका के अंदर की स्थितियों की उद्वर्तना नहीं होती है । कहा भी है- 'उव्वट्टणा ठिईए उदयावलियाए वाहिए ठिईणं' स्थिति की उद्वर्तना उदयावलिका से ऊपर की स्थिति में होती है ।
प्रश्न-किसी भी काल में बंध हो तभी उद्वर्तना होती है । कहा भी है-'आबंधा उच्वट्टइ' बंध पर्यन्त यानि किसी भी प्रकृति की उद्वर्तना उस प्रकृति के बंध होने तक ही प्रवर्तित होती है । जैसे कि मिथ्यात्वमोहनीय की उद्वर्तना मिथ्यात्वमोहनीय के बंध होने तक ही होती है, इसी प्रकार अन्य प्रकृतियों के लिये भी समझना चाहिये तथा ऐसा भी कहा कि बध्यमान प्रकृति की अबाधाप्रमाण सत्तागत स्थिति की उद्वर्तना नहीं होती है। इस प्रकार होने से जो उदयावलिकागत स्थितियां हैं, अबाधा में ही समावेश हो जाने से उनकी उद्वर्तना होती ही नहीं है तो फिर से उदयावलिकागत स्थितियों की उद्वर्तना नहीं होती है-ऐसा निषेध क्यों किया है निषेध तो पहले ही हो गया है।
उत्तर--उक्त प्रश्न अभिप्राय को न समझने के कारण अयुक्त है। ऊपर जो कहा है कि-'बध्यमान प्रकृति की अबाधाप्रमाण सत्तागत स्थिति की उद्वर्तना नहीं होती,' उसका तात्पर्य यह है कि उस अबाधा की अंतर्वर्ती स्थितियों को स्वस्थान से उठाकर अबाधा से ऊपर के
१. उद्वर्तना प्रवर्तित होती है यानि शीघ्र भोगे जायें इस प्रकार से नियत
हुए दलिकों को देर से भोगा जाये वैसा करना बंध समय जो निषेक रचना हुई हो उसे उद्वर्तना बदल देती है। कितनी ही बार जितनी स्थिति बंधे उतनी ही सत्ता में होती है, कितनीक बार बंध से सत्ता में कम होती है और किसी समय बंध से सत्ता में अधिक होती है तो प्रत्येक समय उद्वर्तना कैसे होती है, यह समझने योग्य है ।
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