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________________ पंचसंग्रह : ७ शब्दार्थ - सुहुमेसु-सूक्ष्म, निगोएसु - निगोद में, कम्मठिति — कर्मस्थिति, पलियऽसंखभागूणं - पत्योपम के असंख्यातवें भाग न्यून रहकर, मंदकसाओ - मंद कषाय, जहन्नजोगो - जघन्य योग, जो -- उनसे, एइ - युक्त, सहित रहकर । २२२ जोग्गेसु – योग्य, तो — उसके बाद, वार -- असंख्यात बार सम्यक्त्व विरति को, च - और, सव्वं उव्वलणं - उद्वलना-विसंयोजना, च- तथा, अडवारा- --आठ बार । वसिउ - उ— और, तसेसु — स भव में, सम्मत्तमसंखको, संपप्प- - प्राप्त करके, देसविरइं- देश - सर्वविरति को, अण- अनन्तानुबंधि की, चउरुवसमित्तु - चार बार उपशमना करके, मोहं – मोहनीय की, खवियकम्मो - क्षपितकर्मांश, में, पडुच्च — सम्बन्ध में, लहु -- शीघ्र, खवेंतो--क्षय करने, भवे - होता है, पाएण प्रायः, तेण - उसका, पगयं - प्रकृत काओ वि - कितनी ही, सविसेसं - विशेष । गाथार्थ - सूक्ष्मनिगोद में पल्योपम के असंख्यातवें भाग न्यून कर्मस्थिति ( सत्तर कोडाकोडी सागरोपम ) पर्यन्त मंदकषाय और जघन्ययोग युक्त रहकर -- सम्यक्त्वादि के योग्य त्रस भव में उत्पन्न हो और वहाँ उत्पन्न होकर असंख्य बार सम्यक्त्व, कुछ कम उतनी बार देशविरतिचारित्र, आठ बार सर्वविरति आठ बार अनन्तानुबंधि की विसंयोजना तथा - , Jain Education International चार बार ( चारित्र) मोहनीय की उपशमना कर शीघ्र क्षय करने के लिये उद्यत ऐसा क्षपकश्रेणि पर आरोहण करता हुआ जीव क्षपितकर्मांश कहलाता है । प्रकृत में-- जघन्य प्रदेशसंक्रमस्वामित्व के विषय में उस जीव का अधिकार है । फिर भी कितनी ही प्रकृतियों के सम्बन्ध में जो विशेष है, उसको यथावसर स्पष्ट किया जायेगा । विशेषार्थ – कोई एक जीव सूक्ष्म अनन्तकाय जीवों में पल्योपम For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001904
Book TitlePanchsangraha Part 07
Original Sutra AuthorChandrashi Mahattar
AuthorDevkumar Jain Shastri
PublisherRaghunath Jain Shodh Sansthan Jodhpur
Publication Year1985
Total Pages398
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Karma
File Size18 MB
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