Book Title: Panchsangraha Part 07
Author(s): Chandrashi Mahattar, Devkumar Jain Shastri
Publisher: Raghunath Jain Shodh Sansthan Jodhpur
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पंचसंग्रह : ७
और मधुर रस, मृदु, लघु, स्निग्ध और उष्ण स्पर्श, अगुरुलघु, पराघात, उच्छ्वास, त्रसदशक तथा निर्माण इन पैंतीस प्रकृतियों का उपशमश्रेणि न करके शेष क्षपितकर्माशिविधि द्वारा जघन्य प्रदेशप्रमाण करके क्षय करने के लिये प्रयत्नशील क्षपितकर्मांश जीव के अपूर्वकरण की प्रथम आवलिका के अंत समय में जघन्य प्रदेशसंक्रम होता है । प्रथमावलिका पूर्ण होने के बाद तो अपूर्वकरणगुणस्थान के प्रथम समय से अशुभ प्रकृतियों के गुणसंक्रम द्वारा प्राप्त हुए अत्यधिक दलिक की संक्रमावलिका पूर्ण होने के कारण उस दलिक का भी संक्रम संभव होने से जघन्य प्रदेशसंक्रम घटित नहीं हो सकता है । इसीलिये यहाँ अपूर्वकरण की प्रथम आवलिका का चरम समय ग्रहण करने का संकेत किया है तथा उपशमश्रेणि के निषेध करने का कारण यह है कि उपशमश्रेणि में उपर्युक्त पैंतीस प्रकृतियां शुभ होने से उनमें गुणसंक्रम द्वारा अशुभ प्रकृतियों के अधिक दलिक संक्रमित होते हैं, जिससे उनका जघन्य प्रदेश संक्रम नहीं हो सकता है तथा उपशमश्रेणि के सिवाय की क्षपितकर्मांश होने के योग्य अन्य क्रिया द्वारा जघन्य प्रदेशाग्रसत्ता में जघन्य प्रदेश का संचय करके क्षपकश्रेणि पर आरूढ़ होने वाले जीव के अपने बंधविच्छेद के समय वज्रऋषभनाराचसंहनन का जघन्य प्रदेशसंक्रम होता है । यहाँ भी उपशमश्रेणि के निषेध का कारण पूर्ववत् जानना चाहिये । चौथे गुणस्थान तक ही प्रथम संहनननामकर्म बंधता है, जिससे क्षपकश्रेणि पर चढ़ते मनुष्य को उस गुणस्थान के चरम समय में प्रथम संहनन का जघन्य प्रदेशसंक्रम होता है ।"
तिर्यंचद्विक, उद्योतनाम का जघन्य प्रदेशसंक्रमस्वामित्व
तेवट्ठ उदहिसयं गेविज्जाणुत्तरे सबंधित्ता । तिरिदुगउज्जोयाइं अहापवत्तस्स अंतंमि ॥ ११५ ॥
१ कर्म प्रकृति संक्रमकरण गाथा १०६ में वज्रऋषभनाराचसंहनन का जघन्य प्रदेशसंक्रम भी पंचेन्द्रियजाति आदि पैंतीस प्रकृतियों के साथ ही अपूर्वकरण की प्रथम आवलिका के अंत समय में बताया है ।
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