Book Title: Panchsangraha Part 07
Author(s): Chandrashi Mahattar, Devkumar Jain Shastri
Publisher: Raghunath Jain Shodh Sansthan Jodhpur
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संक्रम आदि करणत्रय-प्ररूपणा अधिकार : गाथा ११८
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सम्माजोगाणं-सम्यग्दृष्टि के बंध अयोग्य, सोलसहं-सोलह प्रकृतियों का, सरिसं-सदृश, थिवेएणं-स्त्रीवेद के समान । __गाथार्थ-दुःस्वरादित्रिक, नीच गोत्र, अशुभ विहायोगति, संहनन पंचक, संस्थान पंचक और नपुसकवेद इन सम्यग्दृष्टि के बंध अयोग्य सोलह प्रकृतियों का जघन्य प्रदेशसंक्रम स्त्रीवेद के सदृश जानना चाहिये।
विशेषार्थ-दुःस्वरत्रिक-दुःस्वर, दुर्भग और अनादेय तथा नीचगोत्र, अशुभ विहायोगति, पहले को छोड़कर शेष पाँच संहनन और पांच संस्थान तथा नपुसकवेद इस तरह सम्यग्दृष्टि जीव के बंधने के अयोग्य सोलह प्रकृतियों का जघन्य प्रदेश संक्रम पूर्व में बताये गये स्त्रीवेद के जघन्य प्रदेशसंक्रम स्वामित्व के समान जानना चाहिये। अर्थात् स्त्रीवेद के जघन्य प्रदेश संक्रम का जो स्वामी कहा है, वही इन सोलह प्रकृतियों का भी जानना चाहिये। परन्तु इतना विशेष है कि तीनं पल्योपम की आयु वाले युगलिक मनुष्य में उत्पन्न हुआ और वहाँ अन्तर्मुहूर्त आयु शेष रहे तब सम्यक्त्व प्राप्त करने वाला जानना चाहिये तथा शेष समस्त कथन स्त्रीवेद में कहे अनुसार है । आयु कर्म आदि का जघन्य प्रदेश संक्रम स्वामित्व
समयाहिआवलीए आऊण जहण्णजोग बंधाणं ।
उक्कोसाऊ अंते नरतिरिया उरलसत्तस्स ॥११८॥ शब्दार्थ-समयाहि आवलीए-समयाधिक आवलिका के, आऊण-आयु का, जहण्णजोग बंधाणं---जघन्य योग से बंधी हुई, उक्कोसाउ-उत्कृष्ट आयु वाले के, अंते--अंत में, नरतिरिया-मनुष्य तिर्यंच के, उरलसत्तस्सऔदारिक सप्तक का ।।
गाथार्थ-जघन्य योग से बंधी हुई सभी आयु का समयाधिक आवलिका शेष रहने पर जघन्य प्रदेशसंक्रम होता है। उत्कृष्ट आयु वाले मनुष्य तिर्यंच अपनी आयु के अंत समय में औदारिक सप्तक का जघन्य प्रदेशसंक्रम करते हैं।
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