Book Title: Panchsangraha Part 07
Author(s): Chandrashi Mahattar, Devkumar Jain Shastri
Publisher: Raghunath Jain Shodh Sansthan Jodhpur
View full book text
________________
२४२
पंचसंग्रह : ७
यहाँ चार पल्योपम अधिक एक सौ पचासी सागरोपम काल इस प्रकार से जानना चाहिये कि कोई क्षपितकर्माश नरकायु को बांधकर छठी नरक पृथ्वी में बाईस सागरोपम की आयु से नारक हो, वहाँ भवप्रत्यय से उपर्युक्त प्रकृतियों की बांधता नहीं और जब वहाँ अन्तर्मुहुर्त आयु शेष रहे तब सम्यक्त्व प्राप्त करे और सम्यक्त्व से गिरे बिना नरक में से निकलकर मनुष्य हो, मनुष्य पर्याय में भी सम्यक्त्व से गिरे बिना सम्यक्त्व के साथ देशविरति का पालन कर सौधर्म स्वर्ग में चार पल्योपम की आयु वाले देव में उत्पन्न हो, यहाँ भी सम्यक्त्व से च्युत न हो, परन्तु उतने काल सम्यक्त्व का पालन कर सम्यक्त्व के साथ ही देवभव में से च्यवकर मनुष्य हो। उस मनुष्यभव में भलीभांति चारित्र का पालन कर इकतीस सागरोपम की आयु से ग्रैवेयक देव में उत्पन्न हो और इतने काल गुणनिमित्त से उपर्युक्त प्रकृतियों का बंध नहीं किया। प्रैवेयक में उत्पन्न होने के बाद अन्तर्मुहर्त के बाद सम्यक्त्व से च्युत होकर मिथ्यात्व में जाये । यहाँ मिथ्यात्वी होने पर भी भवप्रत्यय से उपर्युक्त प्रकृतियों का बंध नहीं होता। अन्तर्महर्त आयू शेष रहे तब पुनः सम्यक्त्व प्राप्त हो और उसके बाद पूर्व में कहे अनुसार दो छियासठ सागरोपम पर्यन्त सम्यक्त्व का पालनकर उस सम्यक्त्व काल का अंतिम अन्तर्मुहूर्त शेष रहे तब कर्मों को सत्ता में से निर्मूल करने का प्रयत्न करे। इस प्रकार संसार में परिभ्रमण करने वाले के चार पल्योपम अधिक एक सौ पचासी सागरोपम तक उपर्युक्त नौ प्रकृतियों के बंध का अभाव प्राप्त होता है। सम्यग्दृष्टि-बंध-अयोग्य अशुभ प्रकृतियों का जघन्य प्रदेशसंक्रम स्वामित्व - दुसराइतिणि णीयऽसुभखगइ संघयण संठियपुमाणं ।
सम्माजोग्गाणं सोलसण्हं सरिसं थिवेएणं ॥११७॥ शब्दार्थ-दुसराइतिण्णि-दुःस्वरादित्रिक, णीयऽसुभखगई-नीचगोत्र, अशुभ विहायोगति, संघयण-संहनन, संठियपुमाणं-संस्थान, नपुसकवेद, Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org