Book Title: Panchsangraha Part 07
Author(s): Chandrashi Mahattar, Devkumar Jain Shastri
Publisher: Raghunath Jain Shodh Sansthan Jodhpur
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संक्रम आदि करणत्रय - प्ररूपणा अधिकार : गाथा ११५
शब्दार्थ — तेवउदहिसयं - एक सौ त्रेसठ सागरोपम, गेविज्जाणुत्तरेग्रैवेयक और अनुत्तर विमान में, सबंधित्ता - बिना बांधे, तिरिदुगउज्जो - याई - तिर्यंचद्विक और उद्योत नाम का, के, अंतंमि - अन्त में ।
अहापवत्तस्स -- यथाप्रवृत्तकरण
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गाथार्थ — ग्रैवेयक और अनुत्तर विमान में एक सौ त्रेसठ सागरोपम पर्यन्त बिना बांधे क्षय करते तिर्यंचद्विक और उद्योतनाम का यथाप्रवृत्तकरण के अंत में जघन्य प्रदेशसंक्रम होता है ।
विशेषार्थ-चार पत्योपम अधिक एक सौ त्रेसठ सागरोपम पर्यन्त ग्रैवेयक और अनुत्तर विमान में भवप्रत्यय अथवा गुणप्रत्यय द्वारा बिना बांधे सर्व जघन्य सत्ता वाले क्षपितकर्मांश के यथाप्रवृत्तकरण के चरमसमय में तिर्यंचद्विक और उद्योतनाम का जघन्य प्रदेशसंक्रम होता है ।
यहाँ चार पल्योपम अधिक एक सौ त्रेसठ सागरोपम इस प्रकार जानना चाहिये कि कोई क्षपितकर्मांश जीव तीन पल्योपम की आयु वाले युगलिक मनुष्य में उत्पन्न हो । वह वहाँ देवद्विक का ही बंध करता है, तियंचद्विक या उद्योतनाम नहीं बांधता है । अन्तर्मुहूर्त आयु शेष रहे तब वहाँ सम्यक्त्व प्राप्त करके और सम्यक्त्व से गिरे बिना ही एक पल्योपम की आयु वाला देव हो, फिर उसके बाद सम्यक्त्व से गिरे बिना ही देवभव में से च्यव कर मनुष्य हो तथा मनुष्यभव में भी सम्यक्त्व से च्युत न हो परन्तु सम्यक्त्व सहित इकतीस सागरोपम की आयु से ग्रैवेयक में देव हो, वहाँ उत्पन्न होने के बाद एक अन्तर्मुहूर्त बीतने के पश्चात् मिथ्यात्व में जाये । मिथ्यात्व में जाने पर भी वहाँ भवप्रत्यय से उपर्युक्त प्रकृतियों को नहीं बांधता है, अन्तमुहूर्त आयु शेष रहे तो फिर सम्यक्त्व को प्राप्त करे और उसके बाद बीच में होने वाले मनुष्यभवयुक्त तीन बार अच्युत देवलोक में और दो बार अनुत्तर विमान में जाने के द्वारा एक सौ बत्तीस
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