Book Title: Panchsangraha Part 07
Author(s): Chandrashi Mahattar, Devkumar Jain Shastri
Publisher: Raghunath Jain Shodh Sansthan Jodhpur
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संक्रम आदि करणत्रय-प्ररूपणा अधिकार : गाथा १०७
२२७ प्रकृति नहीं होने से संक्रम ही नहीं होता है, इसीलिये यह कहा गया है कि बंध के चरम समय में जघन्य प्रदेशसंक्रम होता है। ____जिनके अवधिज्ञान और अवधिदर्शन उत्पन्न नहीं हुआ होता है, वैसे जीव के अवधिज्ञानावरण और अवधिदर्शनावरण का अपने बंध के चरम समय में जघन्य प्रदेशसंक्रम होता है। इसका कारण यह है कि अवधिज्ञान-दर्शन उत्पन्न करते प्रबल क्षयोपशम के सद्भाव से अवधिज्ञानावरण और अवधिदर्शनावरण के पुद्गल अतिरूक्ष-अति निःस्नेह होते हैं और इसी कारण बंधविच्छेद के काल में भी सत्ता में अधिक रह जाने से उनके अधिक पुद्गलों का क्षय होता है और उससे जघन्य प्रदेशसंक्रम नहीं होता है। इसी कारण यह कहा है कि अवधिज्ञान विहीन जीव के अवधिज्ञानदर्शनावरण का जघन्य प्रदेशसंक्रम होता है। स्त्याद्धित्रिक आदि का जघन्य प्रदेशसंक्रमस्वामित्व
थोणतिगइथिमिच्छाण पालिय बेछसट्ठि सम्मत्तं ।
सगखवणाए जहन्नो अहापवत्तस्स चरमंमि ॥१०७॥ शब्दार्थ-थोणतिगइथिमिछाण-स्त्यानद्धित्रिक, स्त्रीवेद और मिथ्यात्व मोहनीय का, पालिय-पालन करके, बेछसट्ठि-दो छियासठ सागरोपम पर्यन्त, सम्मत्तं-सम्यक्त्व को, सगखवणाए-अपनी क्षपणा में, जहन्नोजघन्य, अहापवत्तस्स-~~-यथाप्रवृत्तसंक्रम के, चरमंमि-चरम समय में।
गाथार्थ-दो छियासठ सागरोपम पर्यन्त सम्यक्त्व का पालन कर अपनी क्षपणा के समय यथाप्रवृत्तकरण के चरम समय में स्त्याद्धित्रिक, स्त्रीवेद और मिथ्यात्वमोहनीय का जघन्य प्रदेशसंक्रम होता है।
विशेषार्थ-दो छियासठ सागरोपम अर्थात् एक सौ बत्तीस सागरोपम पर्यन्त सम्यक्त्व का पालन करके और उतने काल पर्यन्त सम्यक्त्व के प्रभाव से अधिक दलिकों को दूर कर-क्षय कर अल्प शेष रहें तब उन प्रकृतियों की क्षपणा करने के लिये तत्पर हुए जीव के अपने-अपने यथाप्रवृत्तकरण के अंत समय में विध्यातसंक्रम द्वारा
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