Book Title: Panchsangraha Part 07
Author(s): Chandrashi Mahattar, Devkumar Jain Shastri
Publisher: Raghunath Jain Shodh Sansthan Jodhpur
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संक्रम आदि करणत्रय-प्ररूपणा अधिकार : गाथा १०३-१०५
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शुभ ध्र वबंधिनी, स्थिर और शुभ, कुल मिलाकर बाईस प्रकृतियों का चार बार मोहनीय का सर्वोपशम करने के बाद बंधविच्छेद होने के अनन्तर आवलिका को उलांघने कर यशःकीर्ति में संक्रमित करते उत्कृष्ट प्रदेशसंक्रम होता है। गुणसंक्रम द्वारा संक्रमित दलिक आवलिका जाने के बाद ही संक्रमयोग्य होते हैं अन्यथा नहीं होते हैं, इसीलिये बंधविच्छेद के बाद आवलिका बीतने के अनन्तर उत्कृष्ट प्रदेशसंक्रम कहा है ।
देवद्विक और वैक्रियसप्तक को मनुष्य-तिर्यंचभव में पूर्वकोटिपृथक्त्व काल तक बंध करे और बंध करके आठवें भव में क्षपकश्रेणि पर आरूढ़ हो तो क्षपकश्रेणि में उक्त प्रकृतियों का बंधविच्छेद होने के बाद आवलिका का अतिक्रमण करके यश कीति में संक्रमित करते उनका उत्कृष्ट प्रदेशसंक्रम होता है। उस समय अन्य प्रकृतियों के गुणसंक्रम द्वारा संक्रमित दलिकों की संक्रमावलिका व्यतीत हो चुकी होने से उत्कृष्ट प्रदेशसंक्रम संभव है। __ इस प्रकार उत्कृष्ट प्रदेशसंक्रमस्वामित्व की प्ररूपणा जानना चाहिये । अब क्रमप्राप्त जघन्य प्रदेशसंक्रमस्वामित्व का निर्देश करते हैं । जघन्य प्रदेशसंक्रम का स्वामी क्षपितकर्माश जीव होता है। अतएव सर्वप्रथम क्षपितकशि का स्वरूप कहते हैं। क्षपितकर्मांश का स्वरूप
सुहमेसु निगोएसु कम्मठिति पलियऽसंखभागूणं । वसिउं मंदकसाओ जहन्न जोनो उ जो एइ ॥१०३॥ जोगेसु तो तसेसु सम्मत्तनसंखवार संपप्प । देसविर इं च सव्वं अण उचलगं च अडवारा ॥१०४॥ चउरुवसमित्तु मोहं लहुँखवेंलो भवे खबियकम्मो। पाएण तेण पगयं पडुच्च काओ वि सविसेसं ॥१०॥
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