Book Title: Panchsangraha Part 07
Author(s): Chandrashi Mahattar, Devkumar Jain Shastri
Publisher: Raghunath Jain Shodh Sansthan Jodhpur
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पंचसंग्रह : ७ शब्दार्थ ---तित्थयराहाराणं-तीर्थंकरनाम, आहारकसप्तक का, सुरगइनवगस्त-देवगतिनवक का, थिरसुभागं-स्थिर, शुभ का, च-और, सुभधुवबंधीग----शुभ ध्र वबंधिनी प्रकृतियों का, तहा–तथा, सगबंधा-अपने बंध की, आलिगं-आवलिका के, गंतु-बीतने के बाद ।
गाथार्थ-तीर्थकरनाम, आहारकसप्तक, देवगतिनवक, स्थिर और शुभ तथा शुभ ध्र वबंधिनी प्रकृतियों का अपनी अंतिम बंधावलिका के बीतने के बाद उत्कृष्ट प्रदेशसंक्रम होता है।
विशेषार्थ--तीर्थकरनाम, आहारकसप्तक, देवद्विक और वैक्रियसप्तक रूप देवगतिनवक, स्थिर, शुभ और नामकर्म की ध्र वबंधिनी पुण्य प्रकृति-तैजससप्तक, शुक्ल-रक्त-हारिद्रवर्ण, सुरभिगंध, कषायआम्ल-मधुररस, मृदु-लघु-स्निग्ध और उष्णस्पर्श, अगुरुलघु, निर्माण कुल मिलाकर उनचालीस प्रकृतियों का पराघात आदि की तरह चार बार मोह का उपशम करने वाले के अंत में बंधविच्छेद होने के पश्चात् अपनी बंधावलिका के बीतने के अनन्तर यश:कीति में संक्रमित करते उत्कृष्ट प्रदेशसंक्रम होता है। जिसका विशेष स्पष्टीकरण इस प्रकार है
आहारकसप्तक और तीर्थकरनामकर्म को उनका अधिक-से अधिक जितना बंधकाल हो, उतने काल बांधे। आहारकसप्तक का उत्कृष्ट बंधकाल देशोन पूर्वकोटि पर्यन्त संयम का पालन करते जितनी बार अप्रमत्तसंयतगुणस्थान में जाये उतना और तीर्थंकरनामकर्म का उत्कृष्ट बंधकाल देशोन पूर्वकोटि अधिक तेतीस सागरोपम जानना चाहिये। इतना काल बंध द्वारा और अन्य प्रकृति के संक्रम द्वारा पुष्ट दल वाला करे, फिर पुष्ट दल वाला करके क्षपकश्रेणि पर आरूढ़ हो और क्षपकश्रेणि पर आरूढ़ हुआ वह जीव जब आठवें गुणस्थान में बंधविच्छेद होने के बाद आवलिका मात्र काल बीतने पर यश:कीति में संक्रमित करे तब उनका उत्कृष्ट प्रदेशसंक्रम होता है।
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