Book Title: Panchsangraha Part 07
Author(s): Chandrashi Mahattar, Devkumar Jain Shastri
Publisher: Raghunath Jain Shodh Sansthan Jodhpur
View full book text
________________
संक्रम आदि करणत्रय - प्ररूपणा अधिकार : गाथा १०३-१०५
के असंख्यातवें भाग न्यून सत्तर कोडाकोडी सागरोपम पर्यन्त रहे । इतने काल वहाँ रहने का कारण यह है—
२२३
सूक्ष्म निगोदिया जीव अल्प आयु वाले होते हैं, जिससे उन्हें बहुत जन्म-मरण होते हैं । बहुत जन्म-मरण होने से वेदना से अभिभूत उनको अधिक परिमाण में पुद्गलों का क्षय होता है । क्योंकि असातावेदनीय के उदय वाले दुःखी जीव के अधिक पुद्गलों का क्षय और सातावेदनीय के उदय वाले सुखी जीव के पुद्गलों का क्षय अल्प प्रमाण में होता है । अतः अनेक जन्म-मरण करने वाले के जन्म-मरणजन्य दुःख बहुत होता है, इसीलिए सूक्ष्म निगोद जीव का ग्रहण किया है ।
सूक्ष्म निगोद में किस प्रकार रहे, अब उसको बतलाते हैं कि मंद कषाय वाला शेष निगोदिया जीवों की अपेक्षा अल्प कषाय वाला होता है, क्योंकि मंद कषाय वाला जीव अल्प स्थिति बंध करता है और उद्वर्तना भी अल्प स्थिति की करता है तथा मंद योग वाला यानि अन्य निगोद जीवों की अपेक्षा इन्द्रियजन्य अल्प वीर्य वाला होता है । क्योंकि अल्प वीर्य व्यापार वाला जीव नवीन कर्म पुद्गलों का ग्रहण बहुत अल्प प्रमाण में करता है और यहाँ क्षपितकर्मांश के अधिकार में इसी प्रकार के अल्प कषाय एवं अल्प वीर्य व्यापार वाले सूक्ष्म निगोद जीव का ही प्रयोजन होने से अल्प कषायी और अल्प योगी सूक्ष्म निगोद जीव का ग्रहण किया है ।
इस प्रकार का मंद कषायी और जघन्य योग वाला सूक्ष्म निगोद जीव अभव्यप्रायोग्य जघन्य प्रदेश संचय करके वहाँ से निकल सम्यक्त्व, देशविरत और सर्वविरत के योग्य त्रस में उत्पन्न हो । वहाँ उत्पन्न होकर संख्यातीत - असंख्यात बार सम्यक्त्व और कुछ न्यून उतनी बार देशविरति प्राप्त करे ।
जिस स भव में सम्यक्त्वादि प्राप्त हो, वैसे त्रस भवों में किस प्रकार उत्पन्न हो और वहाँ सम्यक्त्व आदि किस प्रकार प्राप्त करे ?
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org