Book Title: Panchsangraha Part 07
Author(s): Chandrashi Mahattar, Devkumar Jain Shastri
Publisher: Raghunath Jain Shodh Sansthan Jodhpur
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पंचसंग्रह : ७
स्थावरनाम, उद्योतनाम, आतपनाम और एकेन्द्रियजाति इन चार प्रकृतियों का उत्कृष्ट प्रदेशसंक्रम नपुसकवेद की तरह होता है। नपुसकवेद का उत्कृष्ट प्रदेशसंक्रम जिस तरह बताया गया है, उसी प्रकार इन चार प्रकृतियों का भी उत्कृष्ट प्रदेशसंक्रम होता
है।
मनुष्यद्विक का उत्कृष्ट प्रदेशसंक्रमस्वामित्व
तेत्तीसयरा पालिय अंतमुहत्तूणगाई सम्मत्तं ।
बंधित्तु सत्तमाओ निग्गम्म समए नरदुगस्स ॥१०१॥
शब्दार्थ-तेत्तीसयरा-तेतीस सागरोपम, पालिय-पालन करके, अंतमुहुतूणगाई-अन्तर्मुहूर्तन्यून, सम्मत्तं--सम्यक्त्व को, बंधित्तु-बांधकर, सत्तमाओ-सातवीं नरकपृथ्वी से, निग्गम्म-निकलकर, समए-समय में नरद्गग्स्स—मनुष्य द्विक का ।
गाथार्थ--अन्तर्मुहूर्तन्यून तेतीस सागरोपमपर्यन्त सम्यक्त्व का पालन कर और उतने काल सम्यक्त्व के निमित्त से मनुष्यद्विक का बंध कर सातवीं नरकपृथ्वी से निकलकर तिर्यंचभव में जाये, तब उस तिर्यंचभव में प्रथम समय में ही मनुष्यद्विक का उत्कृष्ट प्रदेशसंक्रम करता है।
विशेषार्थ—सातवीं नरकपुथ्वी का कोई नारक जीव पर्याप्त होने के बाद सम्यक्त्व प्राप्त करे और उसका अन्तर्मुहूर्त न्यून तेतीस
१ यहाँ अन्तर्मुहूर्त न्यून कहने का कारण यह है कि सम्यक्त्व लेकर कोई
जीव सातवीं नरकभूमि में जाता नहीं है और सम्यक्त्व लेकर सातवें नरक से अन्य गति में भी नहीं जाता है। परन्तु पर्याप्त होने के बाद सम्यक्त्व उत्पन्न कर सकता है और अंतिम अन्तर्मुहूर्त में उसका वमन कर देता है। जिससे आदि के और अंत के इस प्रकार दो अन्तर्मुहुर्त मिलकर एक बड़े अन्तर्मुहूर्त न्यून तेतीस सागरोपम का सम्यक्त्व का काल सातवीं नारकी में संभव है।
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