Book Title: Panchsangraha Part 07
Author(s): Chandrashi Mahattar, Devkumar Jain Shastri
Publisher: Raghunath Jain Shodh Sansthan Jodhpur
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पंचसंग्रह : ७
भव में जब-जब जाये तब बंध लेना चाहिए । इस प्रकार सम्यग्दृष्टि होते सम्यक्त्वी के जिनका बंध ध्रुव है, ऐसी बारह प्रकृतियों को एक सौ बत्तीस सागरोपम पर्यन्त बंध द्वारा और अन्य स्वजातीय प्रकृतियों के संक्रम द्वारा पुष्ट करके तथा वज्रऋषभनाराचसंहनन को मनुष्य, तिर्यंच भव हीन देव, नारक भव में यथासंभव उत्कृष्ट काल तक बंध द्वारा और अन्य स्वजातीय प्रकृतियों के संक्रम द्वारा पूरित करके सम्यग्दृष्टि के शुभध्र वसंज्ञा बाली उपर्युक्त बारह प्रकृतियों का अपूर्वकरणगुणस्थान में बंधविच्छेद होने के बाद बंधावलिका पूर्ण होने के अनन्तर यशःकीर्ति में संक्रमित करते उत्कृष्ट प्रदेशसंक्रम होता है । तथा
वज्रऋषभनाराचसंहनन का देवभव से च्यवकर मनुष्यभव में आकर सम्यग्दृष्टि होते देवगतिप्रायोग्य बंध करते आवलिका काल के बाद उत्कृष्ट प्रदेशसंक्रम करता है। देवभव में चरम समय जो प्रथम संहनननामकर्म बांधा, उसका बंधावलिका के बीतने के बाद संक्रम होता है, इसीलिये देव से मनुष्य में आकर आवलिका काल के बाद उत्कृष्ट प्रदेशसंक्रम कहा है।
प्रश्न--बारह प्रकृतियों के साथ ही प्रथम संहनन का उत्कृष्ट प्रदेशसंक्रम क्यों नहीं बताया, पृथक् से निर्देश क्यों किया है ?
उत्तर--बारह प्रकृतियां तो आठवें गुणस्थान के छठे भाग पर्यन्त निरन्तर बंधती हैं, क्योंकि ये सम्यग्दृष्टि ध्र वसंज्ञा वाली हैं। जिससे बंध द्वारा और सातवें गुणस्थान तक यथाप्रवृत्तसंक्रम द्वारा तथा आठवें गुणस्थान के प्रथम समय से अन्य स्वजातीय अशुभ प्रकृतियों के गुणसंक्रम द्वारा अतीव प्रभूत दल वाली होती हैं, इसलिये आठवें गुणस्थान में बंधविच्छेद होने के बाद एक आवलिका–बंधावलिका का अतिक्रमण करके बध्यमान यश:कीर्तिनाम में इन बारह प्रकृतियों का उत्कृष्ट प्रदेशसंक्रम कहा है तथा प्रथम संहनन तो सम्यग्दृष्टि मनुष्य को बंधता नहीं, क्योंकि सम्यग्दृष्टि मनुष्य तो देवभवयोग्य प्रकृतियों का बंध करता है, जिससे मनुष्यभव में वह बंध द्वारा पुष्ट नहीं होता
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