Book Title: Panchsangraha Part 07
Author(s): Chandrashi Mahattar, Devkumar Jain Shastri
Publisher: Raghunath Jain Shodh Sansthan Jodhpur
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पंचसंग्रह : ७
चार बार मोहनीय के सर्वोपशम का संकेत किया है। यानि चार बार मोहनीय को उपशमित करता हुआ- उच्चगोत्र को बांधता जीव नीचगोत्र को गुणसंक्रम द्वारा उच्चगोत्र में संक्रमित करता है । चार बार मोह का सर्वोपशम दो भव में होता है, जिससे दो भव में चार बार मोहनीय को उपशमित करके तीसरे भव में मिथ्यात्व में जाये, वहाँ नीचगोत्र बांधे और नीचगोत्र को बांधता हुआ उसमें उच्चगोत्र को संक्रमित करे, उसके बाद पुनः सम्यक्त्व प्राप्त कर उसके बल से उच्चगोत्र को बांधता हुआ उसमें नीचगोत्र को संक्रमित करे। इस प्रकार अनेक बार उच्चगोत्र और नीचगोत्र को बांधता अंत में नीचगोत्र का बंधविच्छेद कर मोक्षगमनेच्छुक जीव नीचगोत्र के बंध के चरम समय में बंध और गुणसंक्रम द्वारा पुष्ट हुए उच्चगोत्र का उत्कृष्ट प्रदेशसंक्रम करता है। इस प्रकार से उच्चगोत्र का उत्कृष्ट प्रदेशसंक्रम होता है। पराघातादि का उत्कृष्ट प्रदेशसंक्रमस्वामित्व .
परधाय सकलतसचउसुसरा दितिसासखगतिचउरंसं ।
सम्मधुवा रिसभजया संकामइ विरचिया सम्मो ॥६६॥ शब्दार्थ-परघाय-पराघात, सकल-संपूर्ण (पंचेन्द्रियजाति), तसचउ----त्रसचतुष्क, सुसरादिति—सुस्वरादित्रिक, सास-उच्छ्वासनाम, खगति-शुभ विहायोगति, चउरंसं-समचतुरस्रसंर थान, सम्म-सम्यग्दृष्टि, धुवा-ध्रुवबंधिनी, रिसभजुया- वज्रऋभषनाराचसंहनन सहित, संकामइसंक्रमित करता है, विरचिया सम्मो--सम्यग्दृष्टि युक्त ।
गाथार्थ-पराघात, पंचेन्द्रियजाति, सचतुष्क, सुस्वरादित्रिक, उच्छ्वासनाम, शुभ विहायोगतिनाम और समचतुरस्रसंस्थान
१. यहाँ एक के बाद दूसरा इस क्रम से कितनी ही बार उच्चगोत्र और
, नीचगोत्र बांधे, यह नहीं कहा है। Jain Education International For Private & Personal Use Only
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