Book Title: Panchsangraha Part 07
Author(s): Chandrashi Mahattar, Devkumar Jain Shastri
Publisher: Raghunath Jain Shodh Sansthan Jodhpur

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Page 254
________________ संक्रम आदि करणत्रय - प्ररूपणा अधिकार : गाथा ६६ रूप सम्यग्दृष्टि की शुभ ध्रुवबंधिनी प्रकृतियां वज्रऋषभनाराचसंहनन सहित सम्यग्दृष्टि युक्त जीव संक्रमित करता है । विशेषार्थ - इस गाथा में तेरह शुभ ध्र ुवबंधिनी प्रकृतियों के उत्कृष्ट प्रदेशसंक्रमस्वामित्व का निर्देश किया है २१५ पराघातनाम, पंचेन्द्रियजाति, त्रसचतुष्क - स, बादर, पर्याप्त और प्रत्येक, सुस्वरादित्रिक - सुस्वर, सुभग, आदेय तथा उच्छ्वासनाम, प्रशस्त विहायोगति और समचतुरस्रसंस्थाननाम इन बारह पुण्य प्रकृतियों का प्रत्येक गति वाला सम्यग्दृष्टि जीव प्रति समय अवश्य बंध करता है । जिससे ये प्रकृतियां 'सम्यग्दृष्टि शुभ वसंज्ञा' वाली कहलाती हैं तथा वज्रऋषभनाराचसंहनन को तो देव और नारक भव में वर्तमान सभी सम्यग्दृष्टि जीव ही प्रति समय बांधते हैं, मनुष्य, तिर्यंच नहीं बांधते हैं । सम्यग्दृष्टि मनुष्य और तियंच तो मात्र देवगतिप्रायोग्य प्रकृतियों को ही बांधते हैं और उनका बंध करने वाले होने से उनको संहनन का बंध नहीं होता है, जिससे प्रथम संहनननामकर्म सम्यग्दृष्टि शुभ ध्रुवसंज्ञा वाला नहीं कहलाता है । इसीलिये उसे बारह प्रकृतियों से पृथक् कहा है । इन तेरह प्रकृतियों का उत्कृष्ट प्रदेशसंक्रम इस प्रकार है छियासठ सागरोपम पर्यन्त क्षयोपशमिक सम्यक्त्व का अनुपालन करता जीव प्रति समय उपर्युक्त प्रकृतियों को बांधता है । तत्पश्चात् अन्तर्मुहूर्त पर्यन्त मिश्र गुणस्थान में जाकर दूसरी बार क्षायोपशमिक सम्यक्त्व प्राप्त करे । उस दूसरी बार प्राप्त किये क्षायोपशमिक सम्यक्त्व को भी छियासठ सागरोपम पर्यन्त अनुभव करता वह जीव इन समस्त प्रकृतियों को बांधता है । सम्यग्दृष्टि जीव को इन प्रकृतियों की विरोधी प्रकृतियों का बंध नहीं होता है। यहाँ इतना विशेष है कि उपर्युक्त तेरह प्रकृतियों में से बारह का तो एक सौ बत्तीस सागरोपम पर्यन्त निरंतर बंध और प्रथम संहनन का देव, नारक के Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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