Book Title: Panchsangraha Part 07
Author(s): Chandrashi Mahattar, Devkumar Jain Shastri
Publisher: Raghunath Jain Shodh Sansthan Jodhpur
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संक्रम आदि करणत्रय-प्ररूपणा अधिकार : गाथा ४२
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संक्षेप में जिसका प्रारूप इस प्रकार है
प्रकृतियां
स्वामी
विशेष
चतुर्गति के जीव
बंधावलिका से आगे
बंधोत्कृष्टा संक्रमोत्कृष्टा
बंध एवं संक्रम आवलिका से आगे
दर्शनमोह
सम्यग्दृष्टि
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___ अब यह स्पष्ट करते हैं कि बंधोत्कृष्टा अथवा संक्रमोत्कृष्टा प्रकृतियों की स्थिति का जब संक्रम होता है, तब उनकी कुल कितनी स्थिति होती है। प्रकृतियों की यस्थिति
बंधुक्कोसाणं आलिए आवलिदुगेण इयराणं । हीणा सव्वावि ठिई सो जट्ठिइ संकमो भणिओ॥४२॥
शब्दार्थ-बंधुक्कोसाणं-बंधोत्कृष्टा प्रकृतियों की, आवलिए-एक आवलिका, आवलिदुगेण---आवलिका द्विक से, इयराणं-इतरों (संक्रमोत्कृष्टा प्रकृतियों) की, हीणा-हीन, सव्वावि-सभी, ठिइ---स्थिति, सो-वह, जट्ठिइ-यत्थिति, संकमो-संक्रम, भणिओ-कहलाता है।
गाथार्थ-बंधोत्कृष्टा प्रकृतियों की एक आवलिका और इतरों (संक्रमोत्कृष्टा प्रकृतियों) की आवलिकाद्विक हीन जो उत्कृष्ट स्थिति है, वह यत्स्थितिसंक्रम कहलाता है।
विशेषार्थ-कर्मप्रकृतियों की जब स्थिति संक्रमित होती है, सब वह कुल कितनी होती है ? इसका यहाँ स्पष्टीकरण किया है
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