Book Title: Panchsangraha Part 07
Author(s): Chandrashi Mahattar, Devkumar Jain Shastri
Publisher: Raghunath Jain Shodh Sansthan Jodhpur
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संक्रम आदि करणत्रय-प्ररूपणा अधिकार : गाथा ५०
११६
विशेषार्थ-जघन्य स्थिति के सिवाय उत्कृष्ट स्थिति तक के समस्त स्थितिस्थानों का अजघन्य में और इसी प्रकार उत्कृष्ट स्थिति के सिवाय जघन्यस्थिति तक के समस्त स्थानों का अनुत्कृष्ट में समावेश होता है । तात्पर्य यह है कि समस्त स्थितिस्थानों का जघन्य-अजघन्य इन दो में अथवा उत्कृष्ट-अनुत्कृष्ट इन दो में समावेश होता है।
अब इनमें सादि आदि भंगों को घटित करते हैं।
मोहनीयकर्म को छोड़कर शेष मूल सात कर्मों का अजघन्य स्थितिसंक्रम अनादि, ध्रुव और अध्र व इस तरह तीन प्रकार का है। जिसका स्पष्टीकरण यह है-ज्ञानावरण, दर्शनावरण और अन्तराय का जघन्य स्थितिसंक्रम बारहवें क्षीणमोहगुणस्थान की समयाधिक एक आवलिका शेष रहे, तब होता है, नाम, गोत्र, वेदनीय और आयु इन चार कर्मों का जघन्य स्थितिसंक्रम सयोगिकेवली के चरम समय में होता है । यह जघन्य स्थितिसंक्रम एक समय मात्र का होने से सादि
और अध्र व-सांत इस तरह दो प्रकार का है। इसके सिवाय शेष समस्त स्थितिसंक्रम अजघन्य है और वह अनादि काल से होता चला आ रहा है, जिससे अनादि है। अभव्य के अजघन्य स्थितिसंक्रम का अंत नहीं होने से अनन्त-ध्रुव एवं भव्य के बारहवें तथा तेरहवें गुणस्थान के अंत समय में अंत होगा, इसलिये सांत-अध्रुव है। इस तरह मूल सात कर्मों के अजघन्य स्थितिसंक्रम के तीन भंग हैं।
मोहनीयकर्म का अजघन्य स्थितिसंक्रम सादि, अनादि, ध्रुव और अध्र व इस तरह चार प्रकार का है। वह इस प्रकार-माहनीयकर्म का जघन्य स्थितिसंक्रम क्षपक को सूक्ष्मसंपरायगुणस्थान की समयाधिक आवलिका शेष स्थिति हो तब होता है। समयमात्र का होने से वह सादि-सांत है। उसके अतिरिक्त शेष समस्त स्थितिसंक्रम अजघन्य है । वह उपशांतमोहगुणस्थान में क्षायिक सम्यग्दृष्टि के नहीं होता है, किन्तु वहाँ से पतन हो तब होता है, इसलिये सादि है । उस स्थान को प्राप्त नहीं करने वाले के अनादि तथा अभव्य एवं भव्य की अपेक्षा
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