Book Title: Panchsangraha Part 07
Author(s): Chandrashi Mahattar, Devkumar Jain Shastri
Publisher: Raghunath Jain Shodh Sansthan Jodhpur
View full book text
________________
१३४
पंचसग्रह : ७
यहाँ सूक्ष्म एकेन्द्रिय अपर्याप्त को भी ग्रहण करने का कारण यह है कि यद्यपि उपर्युक्त अशुभ प्रकृतियों के उत्कृष्ट रस का बंध संज्ञी मिथ्यादृष्टि करते हैं परन्तु वैसा रस बांधकर एकेन्द्रियादि में उत्पन्न हों तो वे एकेन्द्रियादि जीव उत्कृष्ट रस का संक्रम कर सकते हैं । ___इस संदर्भ में इतना विशेष जानना चाहिये कि मात्र असंख्यात वर्षायु वाले तिर्यंच, मनुष्य और आनतादि कल्प के देव उत्कृष्ट रस को संक्रमित नहीं करते हैं। क्योंकि मिथ्यादृष्टि होने पर भी तीव्र संक्लेश का अभाव होने से वे उपयुक्त अशुभ प्रकृतियों के उत्कृष्ट रस को बांधते नहीं हैं और उत्कृष्ट रस के बंध का अभाव होने से वे उत्कृष्ट रस को संक्रमित भी नहीं करते हैं।
प्रश्न- भोगभूभिज एवं आनत आदि कल्प के देव तीव्र संक्लेश नहीं होने के कारण चाहे उत्कृष्ट रस को न बांधे परन्तु जिन संज्ञियों में से वे आते हैं, वहाँ बंधे हुए उत्कृष्ट रस को लेकर आते हैं, तो फिर वे क्यों संक्रमित नहीं करते हैं ? जैसे एकेन्द्रिय पूर्वभव के बंधे हुए उत्कृष्ट रस को संक्रमित करते हैं।
उत्तर-गाथा में कहा है कि मिथ्यादृष्टि पुण्य अथवा पाप प्रकृतियों के उत्कृष्ट रस को अन्तमुहूर्त से अधिक स्थिर नहीं रख सकते हैं। युगलिकों और आनत आदि देवों की आयु तो प्रशस्त प्रकृति होने से शुद्ध लेश्या से बंधती है। जिस लेश्या से बंधती है, वह लेश्या मनुष्य, तिर्यंच की अन्तमुहूर्त आयु शेष हो तब होती है । अन्तिम अन्तमुहूर्त में प्रशस्त लेश्या होने के कारण पूर्व में उत्कृष्ट रस कदाचित् बांधा हो, तथापि वह घट जाता है। जिससे अशुभ प्रकृतियों के उत्कृष्ट रस की सत्ता को लेकर युगलिक अथवा आनतादि में जाता नहीं। इसलिये वे उत्कृष्ट रस के संक्रम के अधिकारी नहीं हैं।
मिथ्यादृष्टि के उत्कृष्ट रस का संक्रम बंधावलिका के बाद अन्तमुहूर्त ही होता है, इससे अधिक समय नहीं। क्योंकि अन्तमुहूर्त
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org