Book Title: Panchsangraha Part 07
Author(s): Chandrashi Mahattar, Devkumar Jain Shastri
Publisher: Raghunath Jain Shodh Sansthan Jodhpur
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संक्रम आदि करणत्रय-प्ररूपणा अधिकार : गाथा ६६
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गत्रिक, नीचगोत्र और अप्रशस्त विहायोगति, इन प्रकृतियों को भवस्वभाव से युगलिक बांधते नहीं हैं।
इस प्रकार जो-जो प्रकृतियां जिस-जिस गति में भवनिमित्त से बंधती नहीं, उन-उनका वहाँ-वहाँ विध्यातसंक्रम प्रवर्तित होता है। इसका तात्पर्य यह है कि जिस-जिस कर्म का जिस-जिसको अथवा जहाँ-जहाँ गुणनिमित्त अथवा भवनिमित्त से बंध नहीं होता है, वहवह कर्म, उस-उस को अथवा वहाँ-वहाँ विध्यातसंक्रमयोग्य है । अर्थात् उन-उन कर्मप्रकृतियों का वहाँ-वहाँ विध्यातसंक्रम प्रवर्तित होता है, ऐसा समझना चाहिये।
अब दलिक के प्रमाण का निरूपण करते हैं-- विध्यातसंक्रम द्वारा पहले समय में जितनः कर्मदलिक परप्रकृति में प्रक्षेप किया जाता है, उतने प्रमाण से शेष दलिक को भी परप्रकृति में प्रक्षेप किया जाये तो अंगुलमात्र क्षेत्र के असंख्यातवें भाग में जितने आकाश प्रदेश होते हैं, उतने समयों द्वारा पूर्ण रूप से संक्रमित किया जा सकता है । इसका तात्पर्य यह है कि प्रथम समय में जितना कर्मदलिक विध्यातसंक्रम द्वारा अन्यप्रकृति में संक्रमित किया जाता है, उस प्रमाण से यदि उस प्रकृति के अन्य दलिक को संक्रमित किया जाये तो उसको पूर्ण रूप से संक्रमित करने में उपर्युक्त आकाशप्रदेशों की संख्या प्रमाण समयों जितना (असंख्यात उत्सर्पिणी-अवसर्पिणी प्रमाण) काल व्यतीत होगा।
इस संक्रम द्वारा किसी भी कर्मप्रकृति के सभी दलिक सत्ता में से निःशेष नहीं होते हैं। यहाँ तो असत्कल्पना से इस क्रम से यदि संक्रमित हों तो कितना काल व्यतीत होगा, इसका संकेतमात्र किया है।
यह विध्यातसंक्रम प्रायः यथाप्रवृत्तसंक्रम के अन्त में प्रवर्तित होता है। ऐसा कहने का कारण यह है कि यथाप्रवृत्तसंक्रम सामान्य
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