Book Title: Panchsangraha Part 07
Author(s): Chandrashi Mahattar, Devkumar Jain Shastri
Publisher: Raghunath Jain Shodh Sansthan Jodhpur
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पंचसंग्रह : ७ यहाँ अपर्याप्तावस्था में काल कम जाये, इसीलिये शीघ्र पर्याप्तभाव प्राप्त करने का संकेत किया है तथा सातवीं नरकपृथ्वी में अनेक बार उत्कृष्ट योगस्थान और उत्कृष्ट कषायोदयजन्य उत्कृष्ट संक्लेशस्थान को प्राप्त होता है और सातवीं नरकपृथ्वी के भव में वर्तमान जीव की आयु दीर्घ होती है एवं उत्कृष्ट कषायजन्य उत्कृष्ट संक्लेश तथा उत्कृष्ट योग हो सकता है। इसलिये जितनी बार जाया जा सके, उतनी बार सातवीं नरकपृथ्वी में जाये यह संकेत किया है तथा अपर्याप्त की अपेक्षा पर्याप्त का योग असंख्यातगुणा होता है और अधिक योग होने के कारण अधिक कर्मपुद्गलों को ग्रहण कर सकता है तथा गुणितकर्माश के प्रसंग में जो अधिक कर्मपुद्गलों का ग्रहण करे और अल्प दूर करे, ऐसे जीव का प्रयोजन होने से शीघ्र पर्याप्त हो यह कहा है।
इसके बाद जो पहले योगाधिकार में आठ समय कालमान वाले योगस्थान कहे हैं, उनकी यवमध्य संज्ञा है । अतः पहले जिसका वर्णन किया है ऐसा वह सातवीं नरकपृथ्वी का जीव अपनी अन्तर्मुहूर्त आयु शेष रहे तब यवमध्य योगस्थान से ऊपर के सात, छह आदि समय के काल वाले योगस्थानों में अन्तर्मुहूर्त पर्यन्त अनुक्रम से बढ़ता जाये अर्थात् अनुक्रम से वृद्धिंगत योगस्थानों में जाये। योग में बढ़ने के कारण वह अधिक कर्मपुद्गलों को ग्रहण करता है तथा अपनी आयु के अंत समय से पूर्व तीसरे और दूसरे समय में उत्कृष्ट कषायोदयजन्य उत्कृष्ट संक्लिष्ट परिणामी हो और दूसरे समय में तथा पहलेअपनी आयु के अंतिम समय में उत्कृष्ट योग वाला हो।
यहाँ उत्कृष्ट योग और उत्कृष्ट संक्लेश दोनों एक साथ एक समय, काल ही होते हैं, अधिक काल नहीं होते हैं, इसीलिये तीसरे और दूसरे समय में उत्कृष्ट संक्लेश तथा दूसरे और पहले समय अर्थात् नरकायु के अंतिम समय में उत्कृष्ट योग इस प्रकार सम-विषम रूप से उत्कृष्ट संक्लेश एवं उत्कृष्ट योग ग्रहण किया है। त्रिचरम और द्विचरम समय में उत्कृष्ट संक्लेश ग्रहण करने
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