Book Title: Panchsangraha Part 07
Author(s): Chandrashi Mahattar, Devkumar Jain Shastri
Publisher: Raghunath Jain Shodh Sansthan Jodhpur
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पंचसंग्रह : ७
वह जीव उस पुरुषवेद में स्त्रीवेद और नपुंसकवेद के दलिकों को निरन्तर संक्रमित करता है। युगलिक में पल्योपम के असंख्यातवें भाग प्रमाण सर्वायु पर्यन्त जीवित रहकर अंत में मिथ्यात्व में जाकर दस हजार वर्ष प्रमाण जघन्य आयु वाले देव में उत्पन्न हो, वहाँ अन्तर्मुहूर्त के बाद पर्याप्त होकर सम्यक्त्व को प्राप्त करे, वहाँ भी सम्यक्त्व के निमित्त से पुरुषवेद का बंध करे और उसमें स्त्री एवं वेद के दलिक संक्रमित करे, उसके अनन्तर देवभव से च्यव कर मनुष्य में उत्पन्न हो और वहाँ सात मास अधिक आठ वर्ष बीतने के बाद क्षपकश्रेणि पर आरूढ़ हो तो क्षपकश्रेणि में आरूढ़ वह गुणितकर्मांश जीव अभी तक जिसके प्रचुर दलिकों को एकत्रित किया है, उस पुरुषवेद का जो चरमप्रक्षेप करता है, वह उसका उत्कृष्ट प्रदेशसंक्रम कहलाता है ।
यहाँ बंधविच्छेद होने के पहले दो आवलिका काल में जो दलिक बांधा है, वह अत्यन्त अल्प होने से उसका चरमसंक्रम उत्कृष्ट प्रदेशसंक्रम के रूप में नहीं लेना है, किन्तु उसको छोड़कर एकत्रित हुए शेष दलिक का जो चरमसंक्रम होता है, वह उत्कृष्ट प्रदेशसंक्रम कहलाता है । 1
१ पुरुषवेद जहाँ तक बंधता था, वहाँ तक तो उसका यथाप्रवृत्तसंक्रम होता था और बंधविच्छेद होने के बाद क्षपकश्रेणि में उसका गुणसंक्रम होता है । उस गुणसंक्रम के द्वारा पूर्व समय से उत्तरोत्तर समय में असंख्यात असंख्यात गुणाकार रूप से संक्रमित करते अंतिम जिस समय में उसके पूर्व समय से असंख्यातगुण संक्रमित करे वह उसका उत्कृष्ट प्रदेशसंक्रम कह सकते हैं । परन्तु बंधविच्छेद होने के बाद दो समय न्यून दो आवलिका काल में अंतिम जो सर्वसंक्रम होता है, उसे उत्कृष्ट प्रदेशसंक्रम के रूप में नहीं कहा जा सकता है । क्योंकि सर्व संक्रम द्वारा अंतिम समय में जो संक्रमित करता है वह बंधविच्छेद के समय जो बंधा था वह शुद्ध एक समय का ही संक्रमित करता है, जिससे वह दलिक अति अल्प
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