Book Title: Panchsangraha Part 07
Author(s): Chandrashi Mahattar, Devkumar Jain Shastri
Publisher: Raghunath Jain Shodh Sansthan Jodhpur
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संक्रम आदि करणत्रय - प्ररूपणा अधिकार : गाथा ६६, ९७
शब्दार्थ - वरिसवरित्थि - नपुंसक और स्त्री वेद को, पूरिय— पूर कर, सम्मत्तमसंखवासियं-- असंख्यात वर्षप्रमाण सम्यक्त्व को, लभिय-प्राप्त कर, पालन कर, गंतु – जाकर, मिच्छत्तं मिथ्यात्व में, अओ — इसके बाद, जहन्नदेवट्ठिइं— जघन्य देव स्थिति को, भोच्चा - भोगकर |
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आगन्तु --- आकर, लहु शीघ्र, पुरिसं-- पुरुषवेद को, संछुभमाणस्ससंक्षुब्ध करने वाले के, पुरिसवेअस्स - पुरुषवेद का ।
गाथार्थ -- नपुंसक और स्त्री वेद को पूरकर, तत्पश्चात् असंख्यात वर्ष प्रमाण सम्यक्त्व प्राप्त कर - पालन कर, बाद में मिथ्यात्व में जाकर, वहाँ से जघन्य देवस्थिति वाला होकर और वहाँ से च्यव कर मनुष्य में उत्पन्न हो, वहाँ शीघ्र ही क्षपकश्रेणि पर आरूढ़ हो तो उस श्रेणि में पुरुषवेद को संक्षुब्ध करने वाले, संक्रमित करने वाले को पुरुषवेद का उत्कृष्ट प्रदेशसंक्रम होता हैं ।
विशेषार्थ - वर्षवर अर्थात् नपुंसकवेद को ईशान देवलोक में बहुत काल पर्यन्त बंध द्वारा तथा स्वजातीय अन्य कर्म प्रकृतियों के दलिकों के संक्रम द्वारा पूरित, पुष्ट करके, अधिक दलिक की सत्ता वाला करके आयु के पूर्ण होने पर वहाँ से च्यव कर संख्यात वर्ष की आयु वालों' में उत्पन्न होकर फिर असंख्यात वर्ष की आयु वाले युगलिकों में उत्पन्न हो । वहाँ संख्यात वर्ष पर्यन्त स्त्रीवेद को बंध द्वारा और अन्य प्रकृतियों के दलिकों के संक्रम द्वारा पुष्ट करे, तत्पश्चात् सम्यक्त्व प्राप्त करे, उस सम्यक्त्व को असंख्यात वर्ष पर्यन्त पाले और उस सम्यक्त्व के निमित्त से उतने वर्ष पर्यन्त पुरुषवेद का बंध करे । सम्यक्त्व के काल में पुरुषवेद को बांधता
१ यहाँ ' संख्यात वर्ष की आयु वाला' इस पद के संकेत से ऐसा प्रतीत होता है कि कर्मभूमिज मनुष्य और तिर्यंच दोनों का ग्रहण किया जा सकता है।
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