Book Title: Panchsangraha Part 07
Author(s): Chandrashi Mahattar, Devkumar Jain Shastri
Publisher: Raghunath Jain Shodh Sansthan Jodhpur
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संक्रम आदि करणत्रय-प्ररूपणा अधिकार : गाथा ६५
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हो और वह पुरुष अथवा स्त्री अपनी मासपृथक्त्व अधिक आठ वर्ष की उम्र वाला हो, तब क्षपकवेणि पर आरूढ़ हो, तब क्षपकश्रेणि में नपुसकवेद का क्षय करते हुए उस पुरुष अथवा स्त्री को चरमप्रक्षेप काल में सर्वसंक्रम द्वारा संक्रमित करते हुए नपुसकवेद का उत्कृष्ट प्रदेशसंक्रम होता है। अब स्त्रीवेद के संक्रमस्वामित्व का कथन करते हैंपूरित्त भोगभूमीसु जीविय वासाणि-संखियाणि तओ। हस्सठिइं देवागय लहु छोभे इत्थिवेयस्स ॥६५॥ शब्दार्थ—पूरित्तु-पूरित करके, भोगभूमीसु-भोगभूमि में, जीवियजीवित रहकर, वासाणि-संखियाणि-असंख्यात वर्ष, तओ-तदनन्तर, हस्सठिइं—जघन्य स्थिति, देवागय—देव में उत्पन्न हो, लहु छोभे-चरम संक्षोभ काल में, इथिवेयस्स-स्त्रीवेद का। .
गाथार्थ-भोगभूमि में असंख्य वर्ष पर्यन्त स्त्रीवेद को बांधकर एवं पूरितकर और उतना काल वहाँ जीवित रहकर जघन्य स्थिति वाले देव में उत्पन्न हो और वहाँ से च्यव कर मनुष्य में उत्पन्न हो और शीघ्र क्षपकश्रेणि पर आरूढ़ हो, वहाँ स्त्रीवेद
चरमप्रक्षेप अर्थात् नपुसकवेद को उद्वलनासंक्रम द्वारा पल्योपम के असंख्यातवें भाग जैसे खंड कर-करके दूर करते हुए चरमखंड के सिवाय शेष समस्त खंडों को स्व और पर में संक्रमित करके निर्लेप करता है । प्रत्येक खंड को संक्रमित करते हुए अन्तर्मुहूर्त काल जाता है । इसी प्रकार चरमखड को पूर्व-पूर्व समय से उत्तरोत्तर समय में असंख्यात-असंख्यात गुणाकार रूप से पर में संक्रमित करते अन्त मुहूर्त के चरम समय में जो समस्त पर में संक्रमित करता है-वह चरमप्रक्षेप कहलाता है ।
इसी प्रकार जहाँ भी चरमप्रक्षेप शब्द आये वहाँ चरमखंड का चरम
समय में जो समस्त प्रक्षेप हो, उसको ग्रहण करना चाहिये । Jain Education International For Private & Personal Use Only
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